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के अर्धमागधी सहित प्राकृत के सभी भेद-प्रभेद शौरसेनी से ही उद्भूत हुए हैं। इस स्थापना के बाद प्राकृत क्षेत्र में एक विवाद खड़ा हो गया। जैनों के दूसरे सम्प्रदायश्वेताम्बरों में मान्य आगमों की भाषा अर्धमागधी है और अबतक दोनों सम्प्रदाय के विद्वानों में इस बात पर आम राय थी कि तीर्थङ्करों की वाणी अर्धमागधी के रूप में है। पर इस विवाद के बाद इस विषय पर नये सिरे से विचार प्रारम्भ हो गया। इसी बीच जैन-बौद्ध विद्या के प्रसिद्ध विद्वान् स्व० (प्रो०) नथमल टॉटिया का एक भाषण प्राकृतविद्या में छपा, जिसके अनुसार उन्होंने शौरसेनी को सर्वप्राचीन, सभी प्राकृतों का मूल और आगमों की भाषा माना था। उस समय टॉटिया जी जैन विश्वभारती, लाडनूं की सेवा में थे, जो एक श्वेताम्बर संस्था है। वहाँ की पत्रिका 'तुलसीप्रज्ञा' में उन्होंने बाद में प्राकृतविद्या की उक्त अवधारणा का खण्डन कर दिया था, जिससे और भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। इसके बाद पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के तत्कालीन निदेशक प्रो० सागरमल जैन ने उक्त भ्रम के बीच ही सुदीप जैन और प्रो० टॉटिया के प्राकृतविद्या में छपे वक्तव्यों का विभिन्न ग्रन्थों से सन्दर्भ देते हुए, तर्कपूर्ण खण्डन में एक लेख लिखा, जो उस समय विद्यापीठ की शोध-पत्रिका श्रमण और जैन विश्वभारती लाडनं की पत्रिका तुलसीप्रज्ञा में प्रकाशित हुआ, वह लेख यहाँ भी हिन्दी-गुजराती खण्ड के प्रथम लेख के रूप में संकलित है। इन्हीं विवादों के मद्देनजर प्राकृत भाषा के विद्वान् प्रो० के० आर० चन्द्र के अथक प्रयास से यह संगोष्ठी आयोजित हुई थी, जिसमें प्रस्तुत किये गये शोधपत्र इस पुस्तक में संकलित हैं। पुस्तक दो खण्डों में विभक्त है- पहला- अंग्रेजी खण्ड और दूसरा-हिन्दी-गुजराती खण्ड। अंग्रेजी खण्ड में छ: लेख हैं और हिन्दी-गुजराती खण्ड में सात लेख। प्रो० सागरमल जैन के दो लेख परिशिष्ट में छपे हैं जिसमें से एक में उन्होंने प्रो० टॉटिया जी की विद्वता के प्रतिकूल प्राकृतविद्या में उनके नाम से छपे व्याख्यान के मूल होने पर सन्देह प्रकट किया है और अनुरोध किया है उनके व्याख्यान का अविकल टेप सर्वसुलभ करा दिया जाये। दूसरे लेख में उन्होंने हिन्दी-प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० भोलाशंकर व्यास के शौरसेनी के सम्बन्ध में स्थापित मान्यताओं का विविध तर्कों और प्रमाणों द्वारा खण्डन किया है। प्रो० व्यास ने अपनी स्थापना में शौरसेनी को सभी प्राकृतों का मूल अतिप्राचीन भाषा माना है।
भूमिका में डॉ० सागरमल जैन ने ग्रन्थ में छपे सभी लेखों की गहनतम समीक्षा की है। भूमिका हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषा में प्रकाशित है। विषय-प्रतिष्ठापन में प्राकृत भाषा और भाषाविज्ञान के मूर्धन्य विद्वान् डॉ० के० आर० चन्द्र ने आगमों की मूलभाषा एवं उसके मौलिक स्वरूप पर अपनी विद्वतापूर्ण स्थापना उपस्थित की है और भाषायी आधार पर स्व-सम्पादित आचारांग के भाषा-स्वरूप के प्रस्तुतीकरण द्वारा अर्धमागधी की प्राचीनता भाषाविज्ञान के आधार पर सिद्ध की है।
अंग्रेजी खण्ड में प्रथम लेख प्रो० ह० चू० भयाणी का है जिसमें उन्होंने आधुनिक
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