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________________ १८८ भारतीय भाषाओं और बोलियों का विकास और उनके इतिहास का परीक्षण किया है। दूसरे लेख में भाषाविज्ञान के वरिष्ठतम विद्वान् प्रो० सत्यरंजन बनर्जी ने जैन आगमों के सम्पादन में आयी कठिनाइयों के अपने अनुभवों को प्रस्तुत कर कुछ उपयोगी सुझाव रखे हैं। तीसरे लेख में प्रो० रामप्रकाश पोद्दार ने हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रथम सूत्र 'अथ प्राकृतम्' की हेमचन्द्र की स्वोपज्ञ वृत्ति पर विवेचन प्रस्तुत किया है। वस्तुतः हेमचन्द्र ने सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण लिखा और अन्तिम आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण को निबद्ध किया है। इसे भी उन्होंने संस्कृत में ही लिखा और प्राकृत शब्दों की सिद्धि के लिए पूरक रूप में संस्कृत व्याकरण को मानक माना है। चौथे लेख में आचारांग, प्रवचनसार, पालि भाषा और अशोक के अभिलेखों के शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए डॉ० के०आर० चन्द्र ने अर्धमागधी को प्राचीनतम भाषा सिद्ध किया है। पाँचवें लेख में डॉ० एन०एम० कंसारा ने वैदिक छान्दस भाषा से आगमिक अर्धमागधी में आये कुछ भाषायी तत्त्वों को उद्घाटित किया है। छठे लेख में युवा विद्वान् डॉ० दीनानाथ शर्मा ने शौरसेनी की तुलना में अर्धमागधी भाषा के प्राचीन भाषा तत्त्वों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। हिन्दी-गुजराती खण्ड में पहला लेख प्रो० सागरमल जैन का “जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी'' है, जिसकी पृष्ठभूमि और विषयवस्तु पूर्व में प्रस्तुत की जा चुकी है।दूसरे लेख में जैन साहित्य, इतिहास और पुरातत्त्व के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० मधुसूदन ढांकी ने व्यंग्यात्मक लहजे में जैन दर्शन की रूढ़िवादी और काल्पनिक इतिहास दर्शन पर प्रहार किया है और विद्वानों द्वारा इस इतिहास को आधार बनाकर स्थापित की जा रही मान्यताओं की भी आलोचना की है। तीसरे लेख में समणी चिन्मय प्रज्ञा ने आगमसूत्रों की वर्तमान भाषा पर अपना विचार प्रस्तुत किया है। चौथे लेख में प्राकृत भाषा के विद्वान् प्रो० प्रेमसुमन जैन ने शौरसेनी ग्रन्थों में प्राकृत भाषा के प्राचीन तत्त्वों के आधार पर शौरसेनी भाषा को प्राचीन बतलाया है तथा डॉ० के० आर० चन्द्र द्वारा सम्पादित आचारांग के भाषायी स्वरूप के आधार पर ही शौरसेनी की प्राचीनता को तर्कपूर्ण ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है। पांचवें लेख में शोभना आर० शाह ने अर्धमागधी भाषा की तुलना खारवेल के शिलालेख की भाषा से करते हए उसे अर्धमागधी के निकट बताया है। छठे लेख में डॉ० जितेन्द्र बी० शाह ने तीर्थङ्करों की उपदेश भाषा को दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थों के अन्तक्ष्यिों के आधार पर तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हुए उसे अक्षरात्मक और अर्धमागधी भाषा का सिद्ध करते हुए विवाद को निरर्थक बताया है। गुजराती भाषा के लेख में डॉ० भारती शेलट ने अशोक के शिलालेखों की भाषा से अर्धमागधी भाषा की समानता स्थापित की है। यह दःख की बात है कि जिस जैन दर्शन की मूल शिक्षा आत्मज्ञान प्राप्त करने तथा भाषा आदि के स्वरूप और उच्चारण पर जोर न देकर उसके भावों को ग्रहण करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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