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________________ ९४ असिद्ध नहीं ठहराया जा सकता। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थका सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता, अत: चाक्षुष प्रत्यक्ष सर्वज्ञका बाधक नहीं हो सकता। शंका- कोई व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि वह पुरुष है, जैसे कोई राहगीर-इस अनुमानसे बाधा आनेके कारण सर्वज्ञता का सद्भाव कैसे माना जाये? समाधान- जिस तरह पुरुषत्व के रहते हुए भी किसी व्यक्तिमें समस्त वेदोंके अर्थज्ञानका अतिशय प्रकट हो जाता है, उसी तरह पुरुषत्व आदिके रहते हुए भी किसी विशिष्ट व्यक्तिमें समस्त पदार्थ जान लेनेका अतिशय प्रकट हो सकता है, अत: मीमांसकोंकी उक्त शङ्का ठीक नहीं है। इसी तरह उपमान, अर्थापत्ति और पौरुषेय आगम सर्वज्ञताके अभावको सिद्ध नहीं कर सकते। यदि अभाव प्रमाणसे सर्वज्ञका अभाव बतलाया जाये, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जिसे एक बार देख लिया जाये उसीका अभाव सिद्ध किया जा सकता है। सर्वज्ञको जब देखा ही नहीं तो उसका अभाव कैसे बतलाया जा सकता है? यदि उसे देखकर भी अभाव बतलाया जाये तो इसे असत्य ही माना जायगा। अतएव सर्वज्ञताके सिद्ध हो जानेपर मोक्ष भी सुतरां सिद्ध हो जाता है और मोक्षके सिद्ध होनेपर जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा इन तत्त्वोंकी भी संसिद्धि हो जाती है। वचनिका- प्रस्तुत कृति-'तत्त्वसंसिद्धिः' के साथ ढंढारी भाषामें निबद्ध वचनिका भी मुद्रित है, जो अभी तक अप्रकाशित रही। इसमें तत्त्वसंसिद्धिः के पद्योंका तात्पर्य दिया गया है। वचनिकाका सम्पादन ज द ध ब- इन वर्गों से संकेतित चार हस्त लिखित प्रतियोंके आधारपर किया गया है। ज प्रति जयपुर, ब ब्यावर और द ध देहलीसे प्राप्त हुई थीं। वचनिका के रचयिता-- प्रस्तुत वचनिकाके रचयिताका नाम पं० जयचन्द, गोत्र छावड़ा और जाति खण्डेलवाल है। आपका जन्म जयपुर (राजस्थान) के निकट 'फागई' ग्राममें श्री मोतीरामजी लेखपाल-पटवारी के यहाँ वि०सं० १७९५ में हुआ था। ग्यारह वर्षकी अवस्था में आप जयपुरमें पण्डितप्रवर टोडरमल, 'पण्डितराय' दौलतराम, ब्रह्मरायमल्ल और व्रती महारामके सम्पर्कमें आये। इनकी तत्वचर्चाके सुननेसे प्रभावित होकर आप अपने समयको शास्त्र स्वाध्यायमें लगाने लगे। तत्कालीन राजा जगतेशके स्नेहभाजन श्रीरायचन्द्रके सौजन्यसे आप अन्य चिन्ताओंसे मुक्त रहकर चौंसठ २ वर्षकी आयु तक शास्त्रीय चिन्तनमें संलग्न रहे। फलत: आपको प्राय: चारों अनुयोगोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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