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________________ ९३ अस्तित्व नहीं रह सकता । ज्ञान आत्माका गुण है। वह आत्माके बिना नहीं रह सकता, तो फिर उसकी स्वतन्त्र सन्तान कैसे बन सकती है? यदि सन्तानको स्वतन्त्र माना जाये, तो प्रश्न होता है कि वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य माना जाये तो सभी वस्तुओंको क्षणिक माननेकी प्रतिज्ञा ही खण्डित हो जायगी। यदि अनित्य माना जाये तो कृतका नाश और अकृतका अभ्यागम हो जायेगा; क्योंकि वर्तमान सन्तान क्षण अच्छे-बुरे कर्मको करके तुरन्त ही विलीन हो जायेगा, अतः उसका किया हुआ कर्म यों ही नष्ट हो जायगा और अगला सन्तान क्षण अपने बिना किये हुए भी उस कर्मके फलको प्राप्त कर लेगा । पूर्वापर क्षण बौद्धोंकी दृष्टिसे निरन्वय होते हैं, अतः यह भी नहीं हो सकता कि जो सन्तान क्षण वर्तमानमें जिस कर्मको करता है, वही अगले क्षणमें उसके फलको भी प्राप्त कर लेगा । आत्माकी व्यापकताका अपाकरण- अनेक जैनेतर दर्शन आत्माको व्यापक मानते हैं, पर उनका यह मानना घटित नहीं होता; क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे उनकी अनुभूति शरीरके अन्दर होती है, न कि बाहर । यदि सभीकी आत्माको व्यापक ही मान लिया जाये, तो एक व्यक्तिके सुख-दुःख आदिकी अनुभूति दूसरेको भी होनी चाहिए, पर होती नहीं है, अतः आत्माको व्यापक मानना उचित नहीं है । उपसंहार - उपर्युक्त आत्म-विषयक समीक्षणसे स्पष्ट है कि आत्म-तत्त्वके विषयमें तत्त्वोपप्लववादीने अनेक दर्शनोंकी जो मान्यताएँ उसके अभावको प्रमाणित करनेकी दृष्टिसे उपस्थित की हैं, वे भ्रान्तिमूलक हैं। वस्तुतः आत्मा अनादि, अनन्त, निजदेहप्रमाण, कर्ता, भोक्ता और चित्स्वरूप है, जैसा कि युक्ति और प्रमाणोंके आधारपर सिद्ध होता है। आत्माका सद्भाव सिद्ध होनेसे उसकी अपेक्षा रखनेवाले अजीव आदि अन्य तत्त्व भी सिद्ध हो जाते हैं, 'इसलिए सभी तत्त्व उपप्लुत (बाधित) हैं'- यह मान्यता खण्डित हो जाती है । मोक्ष मीमांसकों की विप्रतिपत्ति जीव आदिको स्वीकार करके भी मीमांसक मोक्षका अभाव बतलाते हैं । " विप्रतिपत्तिका निरसन — मीमांसकोंकी यह विप्रतिपत्ति कि मोक्ष नहीं है, ठीक नहीं है; क्योंकि इसमें अनुमानसे बाधा आती है। ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंके क्षयको मोक्ष कहते हैं जो कि अनुमानसे सिद्ध है। अनुमानों का क्षय हो जाता है; क्योंकि आवरणों का क्षय हुए बिना उसमें सर्वज्ञता नहीं हो सकती । कार्यको देखकर उसके कारणका सद्भाव मान लेना अनिवार्य होता है। यहाँ सर्वज्ञता कार्य है और समस्त कर्मोंका क्षय उसका कारण । सर्वज्ञताका बाधक कोई प्रमाण नहीं है, अतः उस ( सर्वज्ञता ) को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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