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________________ ९२ है। ऐसी स्थितिमें आत्मा अपनी इन अवस्थाओंकी अनित्यताके कारणसे स्वयं भी कथंचित् अनित्य है। प्रश्न-सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ आत्मासे भिन्न हैं, अत: इनकी अनित्यताके आधारपर आत्माको कथंचित् अनित्य कैसे माना जा सकता है? उत्तर- सुख-दु:ख आदि अवस्थाएँ आत्मासे भिन्न नहीं मानी जा सकती; क्योंकि उनके भिन्न होने पर ये अवस्थाएँ आत्माकी हैं? इस प्रकारका सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। __ यह कहना भी ठीक नहीं कि अवस्थाओंके भिन्न रहने पर भी समवायके आधार पर ये अवस्थाएँ आत्माकी हैं'-यह सम्बन्ध बन जायेगा; क्योंकि समवाय नित्य है, अत: वह ऐसा उपकार नहीं कर सकता। एक बात यह भी है कि समवाय जिस उपकारको करेगा, वह उसका है यह कैसे सिद्ध होगा? यदि इसके लिए अन्य समवायकी कल्पना की जाये तो उसके किये हुए उपकार का भी उसके साथ सम्बन्ध सिद्ध करनेके लिए पुनः एक अन्य समवाय की आवश्यकता पड़ेगी, जो अनवस्थाको उत्पन्न कर देगी; क्योंकि उपकारके बारेमें उत्तरोत्तर ऐसे ही सम्बन्धों के लिए नये-नये समवायकी कल्पना करनी पड़ेगी। अत: नित्य समवायसे किसी उपकारकी आशा नहीं की जा सकती। उपकारके आश्रय पर ही तो सम्बन्ध माना जाता है। अतएव सुख-दुःख आदि अवस्थाओंसे अभिन्न होनेके कारण आत्मा परिणमनशील है। फलत: वह कूटस्थ नित्य नहीं हो सकता। आत्माकी जड़ताका निराकरण- न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्माको जड़ (ज्ञान शून्य) मानता है। उसकी दृष्टि से संसारी आत्मा ज्ञान गुणके समवायसे ज्ञानवान् होता है, पर मुक्तात्मामें उसका उच्छेद हो जाता है। यह मान्यता सङ्गत नहीं है; क्योंकि आत्माका उसकी चिद्रूप सुख-दुःखादि अवस्थाओंके साथ अभेद है। यदि इन अवस्थाओंसे आत्माको मुक्त माना जाये तो वह नि:स्वरूप हो जायेगा। आत्माके अकर्तृत्वका निरसन- सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं मानते, केवल भोक्ता ही मानते हैं। उनका यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि आत्मा अच्छे-बुरे कर्मोंका कर्ता नहीं है, तो उसके पुण्य-पापका बन्ध कैसे होगा? 'आत्मा भोक्ता-भोगनेकी क्रियाका कर्ता है'-- यह स्वीकार करते हुए भी, उसके कर्तृत्वका अपलाप करना अनुचित है। प्रधानके कर्मबन्ध होता है-यह मान्यता भी ठीक नहीं; क्योंकि प्रधान (प्रकृति) अचेतन है। अत: आत्माको अकर्ता मानना पाप है। सत्यका अपलाप करके असत्यका प्रतिपादन करना पाप क्या, महापाप है। आत्मा की चित्तसन्तानता का खण्डन-बौद्ध केवल चित्तसन्तति (ज्ञान धारा) को आत्मा मानते हैं। उनका यह मानना अयुक्त है; क्योंकि सन्तानवान् के बिना सन्तानका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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