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__ समाधान- सींग और बाण दोनों ही पौद्गलिक हैं, अत: सजातीय हैं, इसलिये कोई दोष नहीं।
प्रश्न- पृथ्वी, जल, तेज और वाय- ये चारों विजातीय होकर भी चेतन को उत्पन्न कर दें तो क्या हानि है? गोबर विजातीय होकर भी बिच्छू को उत्पन्न कर देता है।
उत्तर- यदि ऐसा मान लिया जाये तो पानी से भी पृथ्वी उत्पन्न हो जाये और ऐसी स्थिति में आप (चार्वाक) के तत्त्वोंकी संख्या चार नहीं रह सकती। गोबर बिच्छू के शरीरकी उत्पत्तिमें कारण हो सकता है, न कि उसके आत्मा की उत्पत्ति में।
__ आत्माकी उत्पत्तिके लिए कोई अन्य उपादान कारण हो-यह भी बात नहीं है। यदि यह बात होती तो पृथ्वी आदि चार तत्त्वोंको सहकारी कारण माना जा सकता था। यदि आप यह कहें कि 'आत्माकी उत्पत्तिमें शरीर उपादान कारण है', तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि शरीरमें उपादानका स्वभाव नहीं है। यदि शरीर उपादान होता, तो शरीरके ज्यों-के त्यों बने रहने पर आत्मामें विकार नहीं होना चाहिए, पर होता तो है। शरीरके ठीक रहते हुए भी, आत्मा उसे छोड़कर चल देता है-मृत्यु हो जाती है। घटके उपादान कारण मिट्टी में यह बात नहीं देखी जाती। घड़ेकी मिट्टी जबतक ठीक रहती है, तबतक घड़ा बना ही रहता है। अतएव स्वसंवेदन प्रत्यक्षके अतिरिक्त अनुमान भी आत्माके अभावका बाधक है। अनुमान का आकार यह है- 'आत्मा अनादि और अनन्त है; क्योंकि वह सत् पदार्थ है' (श्लो० २१)।
तत्त्वोपप्लववादीने आत्मा का अभाव सिद्ध करनेके लिए जो अनुपलब्धि होने से–'अनुपलब्धे:' हेतु दिया है, वह भी असिद्ध है; क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे उस (आत्मा) का सद्भाव सिद्ध है।
__ आत्मा और पृथ्वी आदि एक ही जातिके तत्त्व हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इनके स्वरूपमें भेद है-पृथ्वी आदि तत्त्व अचेतन हैं और आत्मा चेतन। भिन्न-भिन्न प्रतिभासके आधार पर जिस तरह आप पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको पृथक्पृथक् मानते हैं, उसी तरह पृथ्वी आदि तत्त्वोंसे आत्मतत्त्वको भी पृथक् मानिये। इस तरह आत्माकी सत्ता सिद्ध होती है।
आत्माकी कूटस्थ नित्यताका निरसन- वेदान्ती आत्माको कूटस्थनित्य (ब्र० स० शाङ्करभाष्य, पृ० २०) मानते हैं, पर उनका यह मानना सङ्गत नहीं है; क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष से ही बाधा है। वह इस तरह कि प्रत्येक प्राणी कभी सुख की तो कभी 'दु:खकी अवस्था (पर्याय) का स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभव करता है। सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ आत्माकी हैं, जो उससे भिन्न नहीं हैं- अवस्था और अवस्थावान्में अभेद होता
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