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________________ - वाग्भट का नाम और समय में भ्रम- श्रद्धेय स्व० प्रेमी जी ने चार वाग्भट और स्व० कीथ ने पाँच वाग्भट बतलाये हैं। कीथ के अनुसार अष्टाङ्गहृदयकार के वंश में एक और भी वाग्भट हुए हैं, जो 'वृद्ध वाग्भट' नाम से प्रख्यात रहे। ये अष्टाङ्गहृदय के प्रणेता के पितामह थे। नाम की समानता के कारण कतिपय विद्वानों को इनकी एकता का भ्रम हुआ है और कुछ को इनके काल के निर्णय में भी। जैसे- १. श्री वाचस्पति गैरोला 'संस्कृत साहित्य का इतिहास', पृष्ठ ९६१; २. आचार्य श्री विश्वेश्वर 'काव्यप्रकाश' की भूमिका, (पृष्ठ ८०) और प्रा० श्री बलदेव उपाध्याय 'संस्कृत-साहित्य का इतिहास' (पृष्ठ ६४५, पञ्चम संस्करण)। इन्होंने सभी वाग्भट नाम के आचार्यों को एक ही व्यक्ति माना है। इसी तरह अन्य इतिहास ग्रन्थों में देखा जाय तो और भी ऐसे भ्रान्त उल्लेख प्राप्त हो सकते हैं। वस्तुत: चारों या पाँचों वाग्भटों की सत्ता और तिथि सर्वथा पृथक् है। इन्होंने स्वयं अपनी-अपनी कृतियों में अपने-अपने पिता का नामोल्लेख किया है। अष्टाङ्गहृदयकार के पिता का नाम 'सिंहगुप्त', नेमिनिर्वाण के कर्ता के पिता का नाम 'छाहड़', 'वाग्भटालङ्कार' के प्रणेता के पिता का नाम ‘सोम' और 'काव्यानुशासन' के रचयिता के पिता का नाम 'नेमिकुमार' था। वृद्ध वाग्भट के पिता का नाम अभी तक प्रकाश में नहीं आया। श्रद्धेय स्व० प्रेमी जी के 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ में इन सभी के समय पर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है। वाग्भट का पारिवारिक एवं धार्मिक परिचय–वाग्भट ने अपने वाग्भटालङ्कार (४.१४८) में अपना प्राकृत नाम 'वाहड' लिखा है। वे गृहस्थ थे। उनके एक अत्यन्त सुशील, सुन्दर एवं विदुषी कन्या भी थी। सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रभावकचरित (पृष्ठ १७३, श्लो० ६७-७०) बतलाता है कि वाहड (वाग्भट) धनवान् तथा परमधार्मिक आदर्श विद्वान् रहे। एक बार उन्होंने अपने गुरु के चरणों में प्रणाम करके उनसे पूछा- “गुरुवर! मुझे अत्यन्त श्लाघ्य कार्य बतलाइए, जिसमें मैं अपने द्रव्य को लगाऊँ। उन्होंने उत्तर दिया- 'जिनालय के निर्माण में द्रव्य लगाना सफल है।' उनके इस आदेश के अनन्तर वाग्भट ने एक सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया, जो हिमालय की भाँति धवल, उन्नत और चमकीले मणिमय कलश से विभूषित था। उसमें अन्तिम तीर्थङ्कर श्री वर्धमान भगवान की जिस सातिशय अद्भुत मूर्ति को प्रतिष्ठित किया, उसकी दिव्य दीप्ति से चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणि की भी प्रभा फीकी पड़ गयी- वह रात्रि में चन्द्रकान्त से एवं दिन में सूर्यकान्त मणि से भी कहीं अधिक चमकती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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