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उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि वाग्भट जितने विद्वान् और धनवान थे, उसमें कहीं अधिक परमधार्मिक सद्गृहस्थ भी।
कृति-परिचय- वाग्भट की प्रस्तुत अमर कृति- 'वाग्भटालङ्कार', जिसका अपर नाम 'अलङ्कारसूत्र' भी है, पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। मुद्रित प्रति के अनुसार पाँचों परिच्छेदों की पद्य संख्या क्रमश: २६+२९+ १८+१५४+३३= कुल २६० है।
ओजो गुण के गद्यात्मक उदाहरणों की गणना को छोड़ दिया जाये तो पद्य संख्या २५९ ही रह जाती है। पर जयपुर और देहली की हस्तलिखित प्राचीन मूल प्रतियों के मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि आमेर शास्त्र-भण्डार, जयपुर की एक मूल प्रति (लेखन काल वि०सं० १७७३) तथा नया जैन मन्दिर देहली की मूल प्रति (लेखन काल वि० सं० १८७१) में छ: पद्य (३.९; ४.६५; ४.९६; ४.१५०; ५.४; ५.३०) नहीं हैं, एवं आमेर शास्त्र-भण्डार जयपुर की अज्ञात लेखनकाल दूसरी प्रति में, जो अधिक प्राचीन प्रतीत होती है, उक्त छ: के अतिरिक्त एक पद्य (४.२९) और भी नहीं है। इस तरह इन प्रतियों के आधार पर पद्य संख्या और भी कम (२५४ या २५३) ही रह जाती है। उक्त देहली की प्रति में एक पद्य (४.९६) के साथ उसका पाठान्तर' भी उपलब्ध है।
प्रतिपाद्य विषय- (१. परि०-) मङ्गलाचरण के पश्चात् काव्य का फल, कविता की सामग्री, कविता के कारण, कारणों के लक्षण, छन्दों के अभ्यास का उपाय. रचना की चारुता के हेतु, काव्य-रचना की विधि, कवियों की रूढ़ियाँ, (२. परि०-) काव्य की भाषाएँ, पद-वाक्य-वाक्यार्थ दोष, (३. परि०-) काव्य के दस गुण, (४. परि०-) चार शब्दालङ्कार, पैंतीस अर्थालङ्कार एवं उनके भेद-प्रभेद, (५. परि०-) नव रस और नायक-नायिकाएँ– इन विषयों का प्रतिपादन करके 'दौषरुज्झित...' इत्यादि उपसंहारात्मक सुन्दर पद्य के साथ प्रस्तुत कृति परिसमाप्त है।
विशेषता- प्रस्तुत कृति की सबसे बड़ी विशेषता है सरलता। उपलभ्य अलङ्कार साहित्य में इससे अधिक सरल पुस्तक अभी तक प्रकाश में नहीं आयी। यों पीयूषवर्ष जयदेव का 'चन्द्रालोक' सरल है, पर उसकी सरलता अलङ्कार-प्रकरण से आगे नहीं पायी जाती। 'चन्द्रालोक' के प्रारम्भिक कतिपय पद्य यह बतलाते हैं कि पीयूषवर्ष के मन में वाग्देवतावतार काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट के प्रति तनिक-सी भी आस्था नहीं थी, पर 'वाग्भटालङ्कार' को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके लेखक के मन में मम्मट के प्रति गहरी आस्था रही। इस दृष्टि से 'चन्द्रालोक' की अपेक्षा 'वाग्भटालङ्कार' की प्रामाणिकता अधिक है। प्रामाणिक सिद्धान्तों का खण्डन करने वाला अप्रामाणिक और मण्डन करने वाला प्रामाणिक माना जाना चाहिए। यदि फूंक से पहाड़। नहीं उड़ाया जा सकता तो प्रमाणसिद्ध सिद्धान्त का भी खण्डन नहीं किया जा सकता।
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