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पद्यों के पूर्व भाग में लक्षणों और उत्तर भाग में उनके उदाहरणों का निरूपण करना 'चन्द्रालोक' की सबसे बड़ी विशेषता है, जो यत्र-तत्र वाग्भटालङ्कार में भी दृष्टिगोचर होती है। जैसे
यद् यत्रानुचितं तद्धि तत्र ग्राम्यं स्मृतं यथा।
छादयित्वा सुरान् पुष्पैः पुरो धान्यं क्षिपाम्यहम्।।२.१५ जो पद जहाँ अनुचित हो, उसका वहाँ प्रयोग करना ‘ग्राम्य' दोष है। जैसे कोई ग्रामीण व्यक्ति कह रहा है कि मैं देवों (देव-प्रतिमाओं) को फूलों से ढककर उनके आगे धान्य फेंक दिया करता हूँ।
अपक्रमं भवेद् यत्र प्रसिद्धक्रमलंघनम्।
यथा भुक्त्वा कृतस्नानो गुरून् देवांश्च वन्दते।। २.२२ -जिस वाक्य में (लौकिक, शास्त्रीय या दोनों के) प्रसिद्ध क्रम का उल्लंघन वर्णित हो, उसमें 'अपक्रम' दोष होता है। जैसे कोई व्यक्ति भोजन करके स्नान करे, फिर गुरुवन्दन के उपरान्त देववन्दन करता है- यह वर्णन। क्रम से स्नान, देववन्दना, गुरुवन्दना और भोजन करना- यह लौकिक तथा शास्त्रीय क्रम है। उसका उल्लंघन यहाँ वर्णित है, अत: ‘अपक्रम' दोष है।
लक्षणों और उदाहरणों में प्रयुक्त छन्द- वाग्भट ने अपनी इस कृति के केवल एक (४.१५०) को छोड़कर शेष सभी लक्षणात्मक पद्यों की रचना अनष्टप् छन्द में
और उदाहरणात्मक पद्यों की रचना अनुष्टुप्, आर्या, इन्द्रवज्रा, उपजाति, भ्रमरविलसित, मणिगुणनिकर, मालिनी, वसन्ततिलका, व्रीड़ा, शार्दूलविक्रीडित, शालिनी, शिखरिणी, सोमराजी और हरिणीप्लुता आदि विविध छन्दों में की है। उदाहरणों में कतिपय पद्य नेमिनिर्वाण आदि के भी हैं।
उदाहरणों में संस्कृत पद्यों के साथ प्राकृत पद्य भी हैं। इससे स्पष्ट है कि वाग्भट अनेक भाषाओं और विषयों में निष्णात थे।
संस्कृत टीकाएँ-- वाग्भटालङ्कार पर सिंहदेवगणि, सोमदेवगणि, राजहंस, ज्ञानप्रमोदगणि, जिनवर्धनसूरि, समयसुन्दरगणि, क्षेमहंसगणि, आचार्य वर्धमानसूरि, मुनि कुमुदचन्द्र, मुनि साधुकीर्ति, अज्ञातनामा मुनि, वादिराज, प्रमोदमाणिक्यगणि, गणेश और कृष्णवर्मा - इन प्राचीन श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं जैनेतर विद्वानों के अतिरिक्त आधुनिक विद्वानों ने भी संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं। * व्यापक प्रचार और प्रभाव- जहाँ तक मैं जानता हूँ जैन अलङ्कार साहित्य में इतनी अधिक टीकाएँ वाग्भटालङ्कार को छोड़कर अन्य किसी ग्रन्थ पर नहीं लिखी
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