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वाग्भटालङ्कार*
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विपुल संस्कृत वाङ्मय में अलङ्कारशास्त्र का स्वतन्त्र स्थान है। मानव जाति का हित अन्तर्निहित रहने से यों तो सभी शास्त्र उपादेय हैं, पर उनके मर्म को समझने एवं अभिनव कृति का निर्माण करने के लिए अलङ्कारशास्त्र की उपादेयता इतर शास्त्रों से कहीं अधिक है, जैसा कि राजशेखर (काव्यमीमांसा, द्वि०अ०) का कथन है। इसीलिए इसके प्रणयन की ओर बड़े-बड़े विद्वान् प्रवृत्त हुए। ख्यातनामा वाग्भट ऐसे ही विद्वानों में से एक हैं, जिनकी अभी तक केवल एक ही कृति उपलब्ध हो सकी है'वाग्भटालङ्कार'।
वाग्भट का समय- वाग्भट ने 'वाग्भटालङ्कार' में समुच्चयालङ्कार के उदाहरण के रूप में जो निम्नलिखित पद्य रचा है, उससे उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है
अणहिल्लपाटकं पुरमवनिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः ।
श्रीकलशनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह।। ४.१३२ अत्युत्कृष्ट वस्तुओं के समुच्चय की दृष्टि से इस पद्य में तीन रत्नों का उल्लेख किया गया है- (१) अणहिल्लपुरपाटन, जहाँ राजा जयसिंह की राजधानी रही, (२) राजा कर्णदेव के पुत्र--- राजा जयसिंह और (३) श्रीकलश नामक हाथी, जो राजा जयसिंह की सवारी के काम आता रहा। प्रस्तुत कृति में और भी ऐसे पद्य हैं, जिनमें सोलकी नरेश जयसिंह की प्रशंसा की गयी है।
__ जयसिंह का नामोल्लेख करने से इतना सुनिश्चित हो जाता है कि वाग्भट इन (जयसिंह) से पहले नहीं हुए। फिर कब हुए? इसका उत्तर कलिकाल सर्वज्ञआचार्य हेमचन्द्र के, जो जयसिंह के उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल के गुरु रहे, व्याश्रयकाव्य (कुमारपालचरित) से मिल जाता है, जिसमें (स० २० श्लो० ९१-९२) उन्हें जयसिंह का अमात्य लिखा है। वाग्भटालंकार की सिंहदेवगणिकृत संस्कृत टीका में 'बंभण्डसुत्ति....' इत्यादि (४, १४८) पद्य की उत्थानिका से भी इसकी परिपुष्टि होती है। अतएव वाग्भट जयसिंह के समकालीन ठहरते हैं। जयसिंह का शासन काल वि०सं० ११५० से ११९९ तक रहा है। इसलिए वाग्भट का भी यही समय प्रमाणित होता है, किन्तु इसके विषय में अनेक बड़े-बड़े विद्वानों को भी भ्रम हुआ है।
*. श्रमण, वर्ष ८, अंक १, नवम्बर १९५६ से साभार
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