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एवं विधां तां निजराजधानी निर्मापयामीति कुत्हलेम। छाया छलादच्छजले पयौधौ प्रचेतसा या लिखितेव भाति।। १-३८
द्वारका पुरी समुद्र के बीच में है। समुद्र के स्वच्छ जल में उसकी छाया पड़ रही है। इसके ऊपर कवि की उत्प्रेक्षा (कल्पना) है कि वरुण ने उसका नक्शा खींच लिया है, यह सोचकर कि मैं (वरुण) भी अपने लिए इसी तरह की राजधानी बनवाऊँगा। वरुण पश्चिम दिशा का स्वामी है। वह समुद्र में निवास करता है। यह कवि संसार में प्रसिद्ध है। इसी आधार से कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। यह इसकी आठवीं विशेषता है।
(९) प्रस्तुत महाकाव्य के अन्त में भगवान् नेमिनाथ की दिव्यदेशना का संक्षेप में वर्णन है। अलङ्कार शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि काव्य धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की शिक्षा देते हैं। मोक्ष पुरुषार्थ का सहायक धर्म पुरुषार्थ है। अत: काव्यों में इसका उपदेश होना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में इसका उपदेश है। मेरा अनुमान है कि जैन काव्यों में सबसे पहले वाग्भट से ही इसे प्रारम्भ किया। द्विसंधानमहाकाव्य प्रस्तुत महाकाव्य से पहले बन चुका था, पर उसमें यह बात-अन्तिम सर्ग कर्मोपदेश नहीं है। प्रस्तुत महाकाव्य में है। बाद में चन्द्रप्रभचरित्र और धर्मशर्माभ्युदय आदि काव्यों के अन्तिम सर्गों में धर्मोपदेश का वर्णन है। जैनेतर काव्यों में यह बात दृष्टिगोचर नहीं होती। प्रस्तुत महाकाव्य की यह नवीं विशेषता है।
प्रस्तुत महाकाव्य में भगवान् नेमिनाथ के पूर्व भवों का वर्णन है। पूर्व भवों के पढ़ने से पाठक को यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे कर्मों का बुरा फल होता है। इससे पाठक का आत्मा से अस्तित्ववाद के ऊपर भी दृढ़विश्वास हो जाता है। नायक की भवावली का वर्णन जैनेतर काव्यों में नहीं के बराबर मिलता है। महापुराण आदि जैन पुराणों में भवान्तरों का वर्णन मिलता है। मेरा ख्याल है कि भवान्तरों का वर्णन महाकाव्य में वाग्भट ने पहले किया। इनके बाद इस शैली को वीरनन्दी और हरिचन्द्र आदि ने भी अपने महाकाव्यों में अपनाया। इस विषय में अभी छान-बीन की अपेक्षा है। यदि मेरा ख्याल ठीक है तो यह प्रस्तुत महाकाव्य की दसवीं विशेषता है।
इसी तरह सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो और भी अनेक विशेषताएं ज्ञात हो सकती हैं। ज्ञात विशेषताओं के आधार पर यह स्पष्ट है कि नेमिनिर्वाणमहाकाव्य उच्चकोटि के महाकाव्यों में से एक है।
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