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________________ १०४ मुनिगण से व्या गुरुण युक्तार्या जयति सामुन्न । चरण गतम खिलमेव स्फुरति तरां लक्षणं यस्याः ।।७-२ पहला अर्थ- इस पर्वत पर आर्यिका जी विराजमान हैं। उनकी मान्यता मुनियों के समान है। उनके साथ उनकी गुरु-प्रधान आर्यिका भी हैं। उनके चिह्न चरणायोग के अनुकूल हैं। आर्यिकाओं में वे सर्वोत्कृष्ट हैं। उन्हें हमारा नमस्कार हो। दूसरा अर्थ- आर्यछन्द, सभी छन्दों में उत्कृष्ट है- (आर्या तथैव भार्या.......)। उसके पूवार्द्ध में सात गण (मुनिगण) और एक गुरु होता है। उसके प्रत्येक चरण का पूरा का पूरा लक्षण कवि को अन्य छन्दों की अपेक्षा शीघ्र ही स्फुरित हो जाता है। रघुवंश, कुमारसंभव, किरात, शिशुपालवध, नैषध, धर्मशर्माभ्युदय, द्विसन्धान और चन्द्रप्रभ आदि प्रचलित महाकाव्यों में ‘चण्डवृष्टि' छन्द का प्रयोग देखने में नहीं आया। प्रस्तुत महाकाव्य के सप्तम सर्ग के ४६ वें पद में इसका प्रयोग किया है। यह इसकी छठी विशेषता है। (७) अलङ्कारों का चमत्कार प्रस्तुत महाकाव्य के प्रणेता को अलङ्कारों का पूर्ण ज्ञान था। वे उनके प्रयोग में अत्यन्त कुशल हैं। उन्होंने अलङ्कार की परिभाषा को ध्यान में रखकर काव्य नहीं बनाया, किन्तु उनके काव्य में वे स्वयं आते गये। उनकी योजना के लिए कवि को स्वतन्त्र प्रयत्न नहीं करना पड़ा। यही कारण है जो वाग्भटालङ्कार के प्रणेता ने प्रस्तुत महाकाव्य के पद्यों को अपनी कृति में उदाहरण रूप दिया है। अभी तक उपलब्ध अलङ्कार ग्रन्थों में ऐसा एक भी नहीं, जिसमें किसी एक ही ग्रन्थ से उदाहरण लिए गए हों। यह सौभाग्य केवल नेमिनिर्वाण के प्रणेता को ही प्राप्त है। वाग्भटालङ्कार में दोषों का प्रकरण भी है, पर उसमें प्रस्तुत महाकाव्य का एक भी उदाहरण नहीं, केवल अलङ्कार-प्रकरण में, विशेषत: यमक के प्रकरण में इसके पचीसों पद्य उद्धृत हैं। इससे ज्ञात होता है कि वाग्भटालङ्कार के प्रणेता की दृष्टि में प्रस्तुत महाकाव्य सर्वथा निर्दोष था। यह इसकी सातवीं विशेषता है। (८) उत्प्रेक्षाओं की विच्छिति। अन्य अलङ्कारों की अपेक्षा उत्पेक्षा को विशिष्ट महत्व दिया जाता है। उपमा का प्रयोग आसानी से हो जाता है, पर उत्प्रेक्षा के प्रयोग में बड़ी कठिनाई पड़ती है। इस बात को वे ही समझ सकते हैं जो स्वयं सत्कवि हैं। प्रस्तुत महाकाव्य में जो उत्प्रेक्षायें। की गई हैं, उनमें चमत्कार है। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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