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अप्रतिहत शक्ति भगवान् महावीर*
इस युग के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव ने अपने जन्म से अयोध्यापुरी को पवित्र किया था। इनका विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत (स्क०५, अ० २-६) में भी समुपलब्ध है। इन्हीं के पौत्र मरीचि, जो धर्मप्राण भारतवर्ष के प्रथम सम्राट भरत के ज्येष्ठ पुत्र रहे, अनेक जन्म लेने के उपरान्त चौबीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हुए। जैन वाङ्मय में इनके चार अन्य नाम भी व्यवहत हैं-वर्धमान, सन्मति, वीर और अतिवीर, पर इतिहास लेखकों ने अपने ग्रन्थों में प्राय: महावीर नाम का उल्लेख किया है, जो सम्प्रति सर्वत्र प्रचलित है।
गर्भावस्था से जीवन के अन्त तक देहधारियों के सामने न जाने कितनी भीषण बाधाएं आया करती हैं, जो उनकी शक्ति को प्रतिहत करके उन्हें सन्मार्ग से विचलित होने को बाध्य कर देती हैं, पर भगवान् महावीर के बहत्तर वर्ष के जीवन काल में दि से अन्त तक ऐसी एक भी बाधा उनके सामने नहीं आयी, जो उनकी शक्ति को कुण्ठित करके उनके दृढ़ निश्चय पर तनिक भी प्रभाव डाल सकी हो।
- भगवान् महावीर स्वयंबुद्ध थे। उनके विशिष्ट ज्ञान को देखकर उस समय के विशिष्ट विद्वान् भी आश्चर्य की अनुभूति करते रहे। विजय और संयज नाम के दो चार ऋद्धिधारी मुनियों के मन में एक शास्त्रीय शङ्का थी। उसका सटीक समाधान उन्हें भगवान् महावीर के अवलोकन मात्र से प्राप्त हुआ था, फलत: उन्होंने इनका सन्मति नाम रख दिया। विषधर सर्प से भी भयभीत न होने के कारण लोग उन्हें वीर कहने लगे।
भगवान् महावीर जन्म से ही अनुपम सुन्दर थे। यौवन के आते ही उसमें और भी निखार आ गया। उनके दिव्यदेह की ऊंचाई सात हाथ थी। उनका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावशाली था।
उनके माता-पिता उनके विवाह हेतु कन्या की तलाश करने लगे। अनेक राजेमहाराजे उसी विषय को लेकर राजा सिद्धार्थ के पास आये। माता-पिता परिणयन के पश्चात् भगवान् महावीर को राज्य सौंपना चाहते थे, पर वे इन दोनों कार्यों के लिए तैयार नहीं हुए। मां के अत्यधिक आग्रह को भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अत: विवाह का बन्धन उन्हें बांध न सका। यौवन में काम पर विजय पाना टेढ़ी खीर है। युवक । *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त.
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