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________________ १०७ अन्य प्रतिद्वन्दियों को जीत सकता है पर वह स्वयं काम के द्वारा जीत लिया जाता है। भगवान् महावीर इसके अपवाद रहे अतः प्रजाजन इन्हें अतिवीर कहने लगे। तीस वर्ष की भरी जवानी में भगवान् महावीर ने घर छोड़ दिया और निर्जन वन में जाकर ईसा से ५६९ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन दीक्षा ले ली। दीक्षा के उपरान्त लगातार बारह वर्षों तक भगवान् महावीर ने घोर तपश्चरण किया। कड़ाके की सर्दी, गर्मी और बरसात में भी वे तपश्चरण के मार्ग से विचलित नहीं हुए । जब शीतलहर की मात्रा प्रबल हो जाती है तब रात भर के बिछुड़े चकवा - चकवी शरीर के अकड़ जाने से प्रभात की मिलन बेला में इच्छा रहते हुए भी अपने - अपने स्नेह को व्यक्त नहीं कर पाते। भूखे हंस शैवाल को चोंचों में दबाते ही छोड़ देते हैं। बर्फ जैसी शीतलता के कारण वह उनके गले के अन्दर नहीं पहुँच पाती। हाथी धूलि को उठाकर भी अपने शरीर पर नहीं डाल पाते। सिंह पंजों की अकड़न के कारण सामने आये हुए हाथी पर आक्रमण नहीं कर पाता । हिरन भूख से व्याकुल होकर भी हरी घास खाने में असमर्थ हो जाते हैं । * भीष्म ग्रीष्म के समय प्रचण्ड मार्तण्ड अपनी प्रखर किरणों से सारी पृथ्वी को चूल्हे पर चढ़े हुए तवा की भाँति गरम कर देता है। आकाश से आग बरसने लगती है। अग्नि और अनल एक जैसे प्रतीत होने लगते हैं। जलाशयों का जल काढ़े की तरह खौलने लगता है। पावस के मौसम में मेष अपनी इच्छानुसार कभी फूल बरसाते हैं तो कभी पत्थर और अग्नि भी। उपल वृष्टि कभी इतनी जोर की होती है कि भीमकाय हाथियों की भी हड्डियाँ चटक जाती हैं। नदियों में इतनी बाढ़ आ जाती है कि मछलियाँ भी उन्नत वृक्षों की शाखाओं तक पहुँच जाती हैं। झंझावत बड़े-बड़े पहाड़ों के शिखरों को भी हिला देता है और वृक्षों को अपने साथ उड़ा ले जाता है। रात्रि के समय अन्धकार इतना गाढ़ हो जाता है कि उसमें सूई की नोंक भी नहीं कोंची जा सकती। मूसलाधार वर्षा सारी पृथ्वी को जलमयी बना डालती है। इस तरह के तीनों मौसम भगवान् महावीर के तपश्चरणकाल में १२ बार आये पर उनके ऊपर तनिक भी विपरीत प्रभाव नहीं डाल सके। वे ऐसे मौसमों में भी अप्रतिहत शक्ति बने रहे। * इस तरह के घोर तपश्चरण की अग्नि में पड़कर भगवान् महावीर की आत्मा कंचन की भाँति निर्मल एवं पवित्र हो गयी। फलतः ई० से ५५७ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल दशमी के दिन भगवान् महावीर को केवल ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) की प्राप्ति हुई। आभ्यान्तर शत्रु- चार घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त करने पर उन्हें यह सफलता मिली, अतः अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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