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उपकारी पशुओं की यह दुर्दशा! *
विश्व के सभी प्राणी सुख चाहते हैं और वे सदा ऐसे साधनों को खोजते हैं, जिनसे उन्हें सुख हो । किन्तु सुख के जितने साधन मनुष्य जुटा लेता है, उतने दूसरे प्राणी नहीं जुटा पाते। मनुष्य अपने सुख के लिए अचेतन के साथ चेतन साधनों का भी संग्रह कर लेता है । किन्तु वह मकान, दुकान, सोना, चाँदी, रुपए-पैसे और वस्त्र आदि अचेतन साधनों की सुरक्षा का जितना ध्यान रखता है उतना गाय, बैल और घोड़े आदि पशुओं का नहीं रखता। मनुष्य पशुओं के साथ बहुत ही निर्दय व्यवहार करता है । यदि मकान का कोई अंश टूट जाये तो मनुष्य शीघ्र ही उसकी मरम्मत करवाता है। किन्तु उपकारी पशुओं में से किसी का कोई अंग टूट जाय तो मनुष्य उसे खाना-पीना भी भरपेट नहीं देता, बल्कि कसाई के हाथ बेच देता है।
• आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा है कि 'संसार का सुख उसे मिल सकता है, जिसके यहाँ खेती होती हो, दूध देने वाली गायें हों, शाक आदि उत्पन्न करने के लिए बाड़ा हो और घर में कुआँ हो । '
मनुष्य को जन्मते ही सबसे पहले भोजन की आवश्यकता पड़ती है। उस समय वह दूध के सिवा अन्य किसी पदार्थ को नहीं खा सकता और न उसे हजम ही कर सकता है। मां का दूध भी उस समय नहीं निकलता। ऐसे अवसर पर गाय का दूध ही दिया जाता है। इसीलिए गाय को माता- - गो माता कहा जाता है। मानव के लिए दूध, दही, मक्खन, मलाई, मट्ठा और घी आदि साक्षात् अमृत हैं। माँ केवल अपने बच्चे को अपना दूध पिलाती है, किन्तु गाय बेचारी अपने बच्चे को भी अपना दूध नहीं पिला पाती। उसका सारा दूध निकाल कर मनुष्य स्वयं पी जाता है या उसे बेच कर धन संचय करता है और स्वयं गुलछर्रे उड़ाता है, पर गाय और उसके बच्चे को भरपेट घास आदि भी नहीं देता। यदि देता है तो तभी तक जब तक कि वह दूध देती है। बुढ़ापे में तो बेचारी को बड़ी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। जो गाय मानव को जिलाती है, पुष्ट बनाती है, धनी करती है, निरोग रखती है; अपने बच्चों को भी दूध देने और अन्न पैदा कराने के योग्य बनाती है, भोजन पकाने की ईंधन देती है; घर पवित्र करने को गोबर देती है, लीवर की शक्ति बढ़ाने को मूत्र देती है, पंचामृत प्रदान करती है,
का सहारा देकर वैतरणी से पार उतार देती है और बढ़िया खाद देती है। यह तो जीवित अवस्था में करती है। मरने पर भी वह मानव की कम सेवा नहीं करती।
श्रमण, वर्ष १२, अंक ९, जुलाई १९६१ ईस्वी से साभार
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