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________________ ६० प्रसिद्ध हैं। नन्दी संघ में जो कई गण, गच्छ आदि हैं, देशीय गण उन्हीं में से एक है। (ख) गुरुपरम्परा-- वीरनन्दी के गुरु का नाम अभयनन्दी और दादा गुरु का नाम ‘विबुध' गुणनन्दी था। वीरनन्दी असाधारण विद्वान् थे, जैसा कि उनकी कृति के अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थों के उल्लेखों से ज्ञात होता है। विद्वत्ता तथा प्रभाव (क) विद्वत्ता-चन्द्रप्रभचरित के क्रियापदों के देखने से स्पष्ट है कि वीरनन्दी का व्याकरणशास्त्र पर पूर्ण अधिकार रहा। द्वितीय सर्ग (श्लोक ४४-११०) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतरदर्शनों के अधिकारी विद्वान् थे। तत्त्वोपप्लव दर्शन की समीक्षा के सन्दर्भ में उन्होंने जो युक्तियाँ दी हैं, वे अष्टसहस्री आदि विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थोंमें भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्तिम सर्ग वीरनन्दी की सिद्धान्तमर्मज्ञता को व्यक्त करता है। चन्द्रप्रभचरित के तत्तत्प्रसङ्गों में चर्चित राजनीति, गजवशीकरण अॅने शकुन-अपशकुन आदि विषय उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करने में सक्षम हैं। (ख) प्रभाव- अभयनन्दी के शिष्य होने के नाते वीरनन्दी, नेमिचन्द्र. सिद्धान्तचक्रवर्ती के सतीर्थ रहे, जिन्होंने शौरसेनी प्राकृति में गोम्मटसार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड), त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार आदि विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की थी, फिर भी उन्होंने कर्मकाण्ड में अपने को वीरनन्दी का ‘वच्छो' ८९ (वत्स) लिखा है, और एकाधिक बार उनका नामोल्लेख किया है। वीरनन्दी के नाम के आगे ‘णाह' (नाथ) और चंद्र (चन्द्र) का प्रयोग और मङ्गलाचरण के प्रसङ्ग में उनका बार-बार स्मरण किया जाना उनके प्रभाव का द्योतक है। वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में नामोल्लेखपूर्वक उनकी कृति- चन्द्रप्रभचरित की सराहना की है। कविवर दामोदर ने अपने चन्द्रप्रभचरित में उन्हें 'कवीश' बतलाया है और वन्दन९२ भी किया है। पण्डित गोविन्द ने अपने पुरुषार्थानुशासन में उनका उल्लेख धनञ्जय, असग और हरिश्चन्द्र से भी पहले किया है और उनके काव्य की प्रशंसा भी। ९३ पण्डितप्रवर आशाधर ने उनके चन्द्रप्रभचरित ,के एक (४,३८) पद्य को उधृत करके अपने सागारधर्मामृत के न्यायोपात्त- इत्यादि (१,११) श्लोक में चर्चित कृतज्ञता गुण का समर्थन किया है और इष्टोपदेश की अपनी टीका में चन्द्रप्रभचरित का एक पद्य उद्धृत किया है। जीवन्धरचम्पू तथा धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता महाकवि हरिश्चन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय की रूपरेखा चन्द्रप्रभचरित को सामने रखकर बनायी। चन्द्रप्रभचरित और धर्मशर्माभ्युदय की मङ्गलाचरणपद्धति, पुराणों के आश्रय की सूचना, दार्शनिक चर्चा और धर्मदेशना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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