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________________ प्रायः एक-सी है। धर्मदेशना के कतिपय पद्यों के चरण-के-चरण मिलते हैं। ५४ यदि अनुक्रम और भाव की समानता पर ध्यान दिया जाय तो लगभग आधी धर्मदेशना दोनों की एक जैसी ही सिद्ध होगी। अतएव यह स्पष्ट है कि समकालीन और उत्तरकालीन अनेक विद्वानों पर वीरनन्दी की विद्वत्ता का महान् प्रभाव रहा है। प्रशस्त विचारधारा वीरनन्दी साधु थे, अत: उनका मन विरागता से प्रभावित रहा। इसका आभास उनके चन्द्रप्रभचरित में ही यत्र-तत्र उपलभ्य है। लगभग आठ स्थलों पर उन्होंने विरक्ति के विचारों एवं नरेशों के दीक्षित होने का वर्णन किया है। प्राय: ऐसे ही प्रसङ्गों में उनकी प्रशस्त विचारधारा की झलक मिलती है, जो इस प्रकार है प्रत्येक जन्तु का जीवन-मरण से और यौवन-बुढ़ापे से आक्रान्त है- इसे देखता हुआ भी जड़ मनुष्य अपने हित की ओर ध्यान नहीं देता, यह खेद और आश्चर्य की बात है।।१,६९।। यह मनुष्य जन्म अशुभ कर्मोदय की मन्दता से किसी तरह काकतालीय न्याय से प्राप्त हुआ है। अत: इसे पा कर चतुर्गतिपरिभ्रमण के वृत्तान्त को समझने वाले व्यक्ति को आत्महित के विषय में प्रमाद करना उचित नहीं है।।४,२६।। अनिष्ट संयोग और इष्टवियोग समान रूप से सभी के साथ लगे हुए हैं- इस बात को सोचकर बुद्धिमान् मानव विषाद करके अपने मन को खिन्न नहीं करता।।५,८७।। बुद्धिमान् मानव खूब आगा-पीछा सोचकर कार्य करता है या फिर उसका आरम्भ ही नहीं करता; क्योंकि सहसा कार्य करना पशुओं का धर्म है, वह मानव में कैसे हो सकता है? ||१२,१०२।। पुत्र वह है, जो अपने कुल का विस्तार करे; मित्र वह है, जो विपत्ति में साथ दे; राजा वह है, जो प्रजा की रक्षा करे और कवि वह है, जिसके वचन नीरस न हो।।१२,१०८।। प्रेम से बढ़कर कोई बन्धन नहीं है; विषय से बढ़कर कोई विष नहीं है; क्रोध से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है और जन्म से बढ़कर कोई दुःख नहीं है।।१५,१४३ ।। ऐसे विचार चन्द्रप्रभचरित में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। विस्तार का भय न होता तो उन सभी का संकलन यहाँ प्रस्तुत किया जाता। ___ अन्य वीरनन्दी- प्रस्तुत वीरनन्दी के अतिरिक्त अन्य वीरनन्दी भी हुए है। (१) आचारसार के प्रणेता, जो मेघचन्द्र विद्य के शिष्य थे, (२) महेन्द्रकीर्ति के शिष्य एवं कलधौतनन्दी के प्रशिष्य। (३) 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' उपाधि से विभूषित और (४) पण्डित महेन्द्र के शिष्य। वीरनन्दी का समय चन्द्रप्रभचरित के रचयिता वीरनन्दी ने अपनी इस कृति में कहीं पर भी अपने समय का उल्लेख नहीं किया, पर अन्य आचार्यों के, जिन्होंने अपनी कृतियों में उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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