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________________ १०९ हो । दुःख का कारण हिंसा है, अत: हिंसा सभी पापों से बढ़कर है। जो आज दूसरे प्राणी की हत्या करता है, वही आगे जाकर उसके द्वारा मारा जाता है। पाप का फल इस जन्म के साथ अगले जन्मों में भी भोगना पड़ता है। अतः हिंस्य के साथ हिंसक भी दुःख का पात्र बनता है । केवल हिंसा का परित्याग करने से झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं अतिसंचय जैसे पापों से भी छुटकारा मिल जाता है; क्योंकि जिसके बारे में असत्य बात कही जाएगी, जिसका धनबाह्यप्राण चुराया जायगा और जिसकी बहू-बेटी के साथ व्यभिचार किया जायगा, उसे घोर कष्ट होगा, जो हिंसा ही तो है। पूर्व संचय के बावजूद जो भी धनिक लोभवश, बाजार में आये हुए माल को अत्यधिक मात्रा में खरीद कर रख लेगा वह अवश्य ही उस काल की मंहगाई का कारण बनेगा, इससे निर्धन व्यक्तियों को कष्ट हुए बिना नहीं रहेगा। अतः मानव जाति को सुखी बनाने के लिए हिंसा का मनसा वाचा कर्मणा परित्याग किया जाना चाहिए। जिन वस्तुओं के खान-पान से हिंसा हो वे भी सर्वथा त्याज्य हैं। मांस बिना हत्या किये प्राप्त नहीं हो सकता। मांस कच्चा हो या अग्नि पर पकाया गया हो, पर उसमें प्रतिपल असंख्य सूक्ष्म जीव उत्पन्न हुआ करते हैं, अतः मांस की जरा सी डली के भूषण करने से एक ही साथ अगणित प्राणियों का घात हो जाता है। मद्य का निर्माण अनेक मादक वस्तुओं को सड़ा कर किया जाता है, अतः इसमें अगणित जीवों की राशियां उत्पन्न हो जाती हैं, फलतः एक बिन्दु मद्य के पान करने से भी असीम जीवों का विनाश हो जाता है। हिंसा के अतिरिक्त भी मद्य-मांस के सेवन से दोष होते हैं, जो शराबियों और कबाबियों को पतन के गर्त में गिरा देते हैं। शहद मधुमक्षिकाओं का वमन है। यह जिस छाते को निचोड़कर निकाली जाती है, उसमें मधुमक्खियों के करोड़ों अण्डे भी होते हैं, निचोड़ने से उन सब का संहार हो जाता है। बड़, पीपल, पाकर, कठूमद और अंजीर आदि क्षीरवृक्षों के फलों में असंख्य जीव रहते हैं, जो प्रत्यक्षगोचर होते हैं, अतः इनके सेवन करने वाले हिंसा से लिप्त हो जाते हैं। अनगालित जल के पीने से उसमें रहने वाले जीवों की हिंसा हो जाती है। रात्रि में सावधानी बरतने पर भी न जाने कितने जीव भोजन के साथ पेट में चले जाते हैं। इससे उनकी हिंसा हो जाती है और भोजन करने वाले अनेक रोगों के शिकार भी बन जाते हैं। मांस आदि उक्त वस्तुओं के परित्याग को मूल गुण कहते हैं । जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं होता उसी प्रकार इन मूल गुणों के बिना मानव भी सच्चा मानव नहीं हो पाता । हिंसात्मक धार्मिक अनुष्ठान अपनी पवित्रता से वञ्चित हो जाते हैं और उनका फल भी जैसा सोचा जाता है उससे सर्वथा विपरीत ही होता है । 'ज्ञान के बांध से घिरे हुए, ब्रह्मचर्य और दया के जल से भरे हुए, पाप के मैल को हटाने वाले अत्यन्त निर्मल आत्म-तीर्थ में स्नान करके इन्द्रिय-दमन की वायु से प्रज्वलित जीवकुण्डस्थ ध्यानाग्नि में असत्कर्मों की आहुति देकर उत्तम कोटि का अग्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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