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होत्र किया जाना चाहिए। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों को नष्ट करने वाले दुष्ट कषायरूपी पशुओं से शम- मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ होना चाहिए, जो कि विद्वानों द्वारा विहित है । ' यह उचित है; क्योंकि जो धार्मिक अनुष्ठानों में हिंसा से धर्म की कामना किया करते हैं वे जहरीले काले नाग के मुख के ऊपरी भाग में स्थित विष की पोटली से सुधावृष्टि की इच्छा करते हैं।
धर्म उसे कहना चाहिए, जिसमें अधर्म का तनिक भी संसर्ग न हो, सुख उसे समझना चाहिए, जिसमें दुःख की संभावना तक न हो; ज्ञान उसे जानना चाहिए, जो अज्ञान से संयुक्त न हो और गति वह है जहाँ फिर आने का चक्कर न हो ।
यों सारे आकाश में जीव राशि व्याप्त हैं, इसलिए उठते-बैठते, चलते-फिरते हिंसा हो जाया करती है फिर भी यत्नपूर्वक ऐसे ढंग से चले-फिरे, उठे-बैठे जिससे हिंसा से बचाव हो सके। हिंसा की भावना नहीं होती, अतः वह हिंसा के दोष से बच जाता है।
वैचारिक हिंसा भी हिंसा है। उससे बचने का उपाय स्याद्वाद है । जगत् की छोटी या बड़ी चेतन या अचेतन सभी वस्तुएं नानाधर्मात्मक हैं, इसीलिए उनकी सार्थक संज्ञा अनेकान्त है। अन्त शब्द का अर्थ धर्म भी होता है। किसी एक धर्म की विवक्षा से उसका कथन करना एवं अन्य धर्मों का निषेध न करना स्याद्वाद है । स्यात् शब्द का अर्थ 'शायद' नहीं है। एक व्यक्ति अपने पिता का पुत्र है, पर अपने पुत्र का पिता भी तो है। पिता के सामने वह पुत्र ही है और पुत्र के सामने पिता ही । अतएव उसे शायद पिता है या शायद पुत्र है- यह कहना सही नहीं है, क्योंकि वह अपने पिता का पुत्र और पुत्र का पिता ही है । यह पिता ही है, पुत्र नहीं किसी भी दृष्टि से ऐसा नहीं कहा जा सकता अन्यथा लोक व्यवहार भी नहीं चल सकेगा जैसा कि सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है।
भारत वर्ष में शास्त्रार्थ का बड़ा प्रचार रहा है। इसमें हिंसा भी खूब हुआ करती थी। भगवान् महावीर ने शास्त्रार्थियों को समन्वय की नयी दृष्टि प्रदान की। सांख्यदर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य मानता है और बौद्ध दर्शन सर्वथा अनित्य । पर जैन दर्शन की दृष्टि से वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य भी है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य भी । प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है, अत: उसकी अवस्थाएं बदलती रहती हैं, उसका समूल नाश कभी नहीं होता। गेहूँ इन्द्रिय ग्राह्य है या यों कहिये उनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों गुण विद्यमान हैं, अत: वे पुद्गल हैं। गेहूं पिस कर आटा बन जाता है, अतः उसकी अवस्था, जिसका दूसरा नाम पर्याय है, बदल जाती है पर पुद्गलत्व तो बना ही रहता है। उस दृष्टि से गेहूं नित्य भी है और अनित्य भी । इसी दृष्टि से प्रत्येक के विषय में शास्त्रीय विचार करें और 'ही' के स्थान में 'भी' का प्रयोग करते चलें तो
'वस्तु
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