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नेमिनिर्वाण : एक अध्ययन*
भारतीय संस्कृत साहित्य में जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यों साहित्य में सभी विषयों का समावेश हो जाता है, किन्तु प्रस्तुत लेख में केवल काव्य साहित्य की चर्चा अपेक्षित है।
समस्त वाङ्मय की रचना मानवमात्र के हित की दृष्टि से की गई है, किन्तु अन्य शास्त्रों की कठिनाई को देख कर आचार्यों ने मानव को सरल रीति से शिक्षा देने के लिए काव्य शास्त्र का निर्माण प्रारम्भ किया। अन्य शास्त्र एक-एक विषय की शिक्षा देते हैं, पर काव्य शास्त्र संक्षेप में सभी शास्त्रों का सार, सरल और सरस शब्दों में बतलाने का प्रयत्न करता है। चौदहवीं शताब्दी के विद्वान् श्री विश्वनाथ ने जो चौदह भाषाएं जानते थे-लिखा है “अल्प बुद्धिवालों को भी चूंकि काव्य से ही सुखपूर्वक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति, बिना परिश्रम के ही हो जाती है, अत: मैं उस (काव्य) के स्वरूप का निरूपण कर रहा हूँ"
चर्तुवर्गफल प्राप्तिः सुखादल्पधियामपिं । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।।
- साहित्यदर्पण १-२ दसवीं शताब्दी के विद्वान् श्री ममम्ट ने— जो वाग्देवता के अवतार माने जाते हैं- लिखा है “काव्य वंश का जनक, अर्थ का उत्पादक, व्यवहार का बोधक, अमङ्गल का विनाशक, शीघ्र ही आनन्द का जनक और स्त्री के समान सरसता से उपदेश प्रदान करने वाला है।"
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहार विदे शिवेतर अत ये। सद्यः परिनिर्वृतयु कान्तासम्मित तयोपदेश युजे।।
- काव्यप्रकाश १-२ मम्मट के पूर्ववर्ती अलङ्कारिकों ने भी यही बात कही है और अग्निपुराण तथा विष्णुपुराण में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है।
जिस बात में रस हो-जो बात सरस हो उसे सभी सुनना चाहते हैं न कि नीरस को। व्याकरण आदि शास्त्रों की बातें नीरस होती हैं, जब कि काव्य की बातें रस से *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त.
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