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९७ मोक्ष भी नहीं हो सकता-- इसी दृष्टिसे वीरनन्दीने मीमांसकोंके मोक्षाभावको पूर्वपक्षमें रखकर उसका निरसन किया है। महर्षि जैमिनि (३०० वि० पू०) ने मोक्षका निरूपण नहीं किया, पर कुमारिल भट्ट (लगभग ८वीं शती) ने मीमांसा श्लोकवार्तिक में किया है- इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। जान पड़ता है अन्य दर्शनों का प्रभाव ही इसमें कारण है, जैसा कि आधुनिक जैनेतर मनीषियोंके उल्लेखों से स्पष्ट है(१) वैदिक-कर्मोंका फल स्वर्ग प्राप्ति माना जाता है। निरतिशय सुखका नाम स्वर्ग है 'स्वर्गकामो यजेत' वाक्यमें यज्ञ कर्मोके सम्पादनका उद्देश्य स्पष्ट रूपसे स्वर्गकी कामना दिया गया है। परन्तु अन्य दर्शनोंमें मानव जीवनका लक्ष्य मोक्ष बतलाया गया है। फलत: मीमांसामें भी मोक्षकी भावनाने प्रवेश किया।आचार्य श्रीरामशर्मा-मीमांसादर्शन, भूमिका, पृष्ठ १३।। (२) वैदिक कर्मोका फल है स्वर्ग की प्राप्ति। निरतिशय सुखका ही अपर नाम स्वर्ग है। 'स्वर्गकामो यजेत' वाक्य यज्ञका सम्पादन स्वर्गकी कामनाके लिए विधान करता है, परन्तु अन्य दर्शनोंमें मोक्ष ही मानव जीवनका लक्ष्य माना गया २ है। फलत: यहाँ भी मोक्षकी भावनाने प्रवेश किया।'
- पण्डित बलदेव उपाध्याय-भारतीय दर्शन, पृ० ४१९. अतएव यह मानना पड़ेगा कि प्रस्तुत विषय में वीरनन्दी का पूर्वपक्ष सर्वथा संगत है।
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