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क्या सिद्ध हो सकते हैं?-'पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि, तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते, किं पुनरन्यानि?'-भट्ट जयराशि-तत्त्वोपप्लवसिंह पृ० १। पुरुष (आत्मा) अविनाशी है; क्योंकि उसके विनाशका कोई कारण नहीं है और वह कूटस्थ नित्य भी है; क्योंकि उसके विकारका कोई हेतु नहीं है- 'पुरुषो विनाशहेत्वभावादविनाशी, विक्रियाहेत्वभावाच्च कूटस्थनित्यः।' ब्र०सू० शाङ्करभाष्य, पृ०-२०, निर्णयसागर प्रकाशन। चन्द्रप्रभचरितम्की पञ्जिकामें आत्मा की कूटस्थनित्यताको सांख्यदर्शनकी और अकर्तृताको मीमांसा दर्शनकी मान्यता बतलाया है, पर सूक्ष्म विचार करनेपर यह सङ्गत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि मीमांसा श्लोकवार्तिकमें आत्मा को एकाधिक स्थलोंपर कर्ता बतलाया गया है। जैसे- कर्ता तावत्स्वयं पुमान् श्लो० ७६, पृ० ७०९, चौखम्भा प्रकाशन। इसके लिए उक्त ग्रन्थके ७५ तथा ८२ आदि अन्य श्लोक भी द्रष्टव्य हैं। यों सांख्यदर्शन भी आत्मा को कूटस्थनित्य मानता है, पर ७वें श्लोक के पूर्वार्ध में 'केचित्' का दो बार उल्लेख हुआ है। ऐसी स्थितिमें पहले 'केचित्' से वेदान्त दर्शनको लेना चाहिए और दूसरे 'केमि' से सांख्य दर्शनको; क्योंकि मीमांसा दर्शन आत्माको अकर्ता नहीं, कर्ता मानता है। तत्त्वसंसिद्धिः (श्लोक ४८) में कहा गया है कि मीमांसक जीव-अजीव, पुण्य-पाप और सुख-दुखको स्वीकार करके भी मोक्षके विषयमें विवाद करते हैं (विप्रतिपद्यन्ते) पर अगले (४९-६७) श्लोकों से स्पष्ट है कि मीमांसक मोक्षके सद्भावको स्वीकार नहीं करते। महर्षि जैमिनिके सूत्रोंमे मोक्षकी चर्चा दृष्टिगोचर नहीं होती। सोमदेव सूरिने मीमांसकोंका एक उद्धरण दिया है'अङ्गाराञ्जनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्य चित्तस्य न कुतश्चिद्विशुद्धचित्तवृत्तिः' -(यशस्तिलकचम्पू, भाग २, पृष्ठ २६९)। यही उद्धरण भास्करनन्दिविरचित तत्त्वार्थवृत्ति-सुखबोधा (पृष्ठ ३) में भी उपलब्ध है। इसका अर्थ है-कोयले एवं कज्जल की भांति स्वभावसे ही अत्यन्त मलिन मनकी वृत्ति किसी भी कारणसे शुद्ध नहीं हो सकती।-यह जैमिनीयों- मीमांसकोंका अभिमत है। इसी अभिप्राय का एक अन्य पद्य भी धूमध्वजके नामसे सोमदेवने उद्धृत किया है-'घृष्यमाणो यथाङ्गारः शुक्लतां नैति जातुचित्। विशुद्धयति कुतश्चितं निसर्गमलिनं तथा।।' (यशस्तिलकचम्पू, भाग २, पृष्ठ २५०)-जैसे घिसा गया कोयला कभी सफेद नहीं हो सकता वैसे स्वभाव से मलिन मन भी कैसे शुद्ध हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता (अत: इसके लिए तपस्याका प्रयास व्यर्थ है।) मनकी शुद्धिके बिना आत्मशुद्धि नहीं हो सकती और आत्मशुद्धिके बिना
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