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________________ ९९ ओत-प्रोत होती हैं। सरस वाक्य का ही नाम तो काव्य है। जैसा कि विश्वनाथ कविराज ने लिखा है- 'वाक्य रसात्मक काव्यम्, साहित्यदर्पण १ - ३ । सरस होने के कारण ही काव्य 'काव्यशास्त्र' कहे जाने लगे और इनका खूब ही प्रचार हुआ। पौराणिक कथाओं का आश्रय लेकर खण्डकाव्य, महाकाव्य, नाटक, चम्पू, आख्यान, आख्यायिका और गद्य काव्यों की रचना की गई। कुछ विद्वानों ने कल्पित कथाओं को आधार बनाकर भी काव्य रचे । फलतः चारों ओर यह सुनाई पड़ने लगा कि 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्' । अलङ्कारशास्त्र में नौ रसों की चर्चा आती है। उन रसों में शृङ्गार प्रधान माना जाता है— 'शृङ्ग प्राधान्यम् ऋच्छति गच्छतीति शृङ्गारः । इसी रस का पुट देकर कुछ कवियों ने ऐसे काव्यों का भी निर्माण किया, जिन्हें पढ़कर मानव का मन विकृत हुए बिना नहीं रह सकता । राजा-महाराजा भी ऐसे काव्यों को पसन्द करने लगे। फलतः काव्यों से लाभ के स्थान में हानि होने लगी। यह देखकर कुछ लोग यह स्पष्ट कहने लगे कि 'शास्त्र काव्यने हन्यते' और कुछ लोग तो यहां तक कहने लगे कि 'रण्ड गीतानि काव्यानि । ऐसी स्थिति में जैन विद्वानों ने बहुत सतर्क होकर काव्य रचना की। जैन कौव्यों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर जैन काव्य में अनेक विशेषताएं ज्ञात हो जाती हैं। महाकवि कालिदास ने 'मेघदूत' की रचना की। यह खण्डकाव्य उनकी प्रतिभा का अद्भुत नमूना है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। किसी मार्ग का इतना सरस वर्णन करना कालिदास के लिए ही सम्भव था । कालिदास की लेखन शैली पाठक के हृदय को बरबस आकृष्ट कर लेती है। किन्तु कालिदास ने अपनी रचना में शृङ्गार की अति कर दी। इसीलिए इनका मेघदूत जब भगवज्जिनसेनाचार्य के सामने पहुंचा तो उन्होंने शान्त रस का पुट देकर उसका कायाकल्प ही कर डाला उसे पार्श्वनाथ का चरित बना दिया । मेघदूत के जिन पद्यों से रामटेक से लेकर कैलास पर्वत तक का मार्ग ज्ञात होता है, उन्हीं से जैनों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन वृत्त का परिचय मिलना एक असम्भव सी बात है । किन्तु जिनसेन ने मेघदूत की समस्या पूर्ति कर के इसे सम्भव बना दिया। मेघदूत में विप्रलम्भ शृङ्गार है, जब कि उसकी समस्यापूर्ति - पार्श्वाभ्युदय में शान्त रस । महाकवि धनञ्जय ने रामायण और महाभारत की कथा का आधार लेकर 'राघव पाण्डवीयम्' महाकाव्य की रचना की । इस महाकाव्य में श्लेष का चमत्कार आरम्भ से अन्त तक है । एक अर्थ से राम - कथा और दूसरे पाण्डव-कथा निकलती है । प्रत्येक श्लोक से दो-दो अर्थ निकलते हैं। इसीलिए इस महाकाव्य का दूसरा नाम द्विसन्धानम् है, जो विद्वत्संसार में प्रचलित है। इस महाकाव्य में आदि से अन्त तक वेदर्दी रीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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