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काव्य-कल्पलता और कवि-कल्पलता'
भारतीय साहित्य बहुत विपुल है। इसके निर्माण में जैन मनीषियों ने जो सहयोग किया है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । अलङ्कारशास्त्र भी भारतीय साहित्य का एक अङ्ग है, जिसके विकास में वाग्भट (वाग्भटालङ्कार के कर्ता), हेमचन्द्र, रामचन्द्र, माणिक्यचन्द्र, नमिसाधु, जयसेन, अरिसिंह, अमरचन्द्र और बाणभट्ट (काव्यानुशासन के कर्ता) आदि अनेक जैन विद्वानों का हाथ रहा है। इन विद्वानों में से अरिसिंह ने "काव्य-कल्पलता' की रचना १३वीं शताब्दी में की है। अरिसिंह ने वस्तुपाल की प्रशंसा में 'सुकृतसङ्कीर्तन' ग्रंथ रचा है। वस्तुपाल का काल विद्वानों ने १२४२ ई० सन् निश्चित किया है।
काव्य-कल्पलता- इस ग्रंथ में चार प्रतान हैं। पहले प्रतान में ५, दूसरे प्रतान में ४, तीसरे प्रतान में ५ और चौथे में ७ स्तबक हैं, जिनमें अनुष्टुप् आदि छन्दों में कविता का अभ्यास किस प्रकार से किया जाय, सामान्य शब्द कौन से हैं, शास्त्रार्थ में कैसी उक्ति का प्रयोग करना चाहिए, काव्यों में क्या वर्णन करना चाहिए, शब्द कितने प्रकार के होते हैं, श्लिष्ट रचना कैसे की जाय आदि विषयों पर विषद् प्रकाश डाला गया है। काव्य निर्माण करनेवालों के लिए यह ग्रन्थ साक्षात कल्पलता है।
वृत्ति- प्रस्तुत ग्रंथ सन् १९३१ में चौखम्भा, वाराणसी से प्रकाशित हुआ था, जिसमें अमरचन्द्र यति की वृत्ति (काव्य-कल्पलता परिमल) भी है। यति जी ने वृत्ति की रचना १४वीं शताब्दी में की थी। इसकी पुष्टि श्री जगन्नाथ शास्त्री ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में की है।
यति अमरचन्द्र जी अपने समय के महान् विद्वान् थे। उन्होंने सात ग्रन्थों की रचना की थी- (१) जिनेन्द्रचरितम्, (२) स्यादिशब्दसमुच्चयः, (३) बालभारतम्, (४) द्रौपदीस्वयंवरः, (५) छन्दोरत्नावलिः, (६) काव्यकल्पलतापरिमल: और (७) अलंकारप्रबोधः ।
___ “काव्यकल्पलता' ने अलंकारशास्त्र के प्रणेताओं के सामने एक नया आदर्श उपस्थित किया। भामह, रुद्रट, उद्भट, वामन, मम्मट, हेमचन्द्र और वाग्भट आदि आलंकारिकों ने अपने-अपने अलंकार ग्रन्थों में काव्य का स्वरूप, दोष, गुण, रीति, अलंकार, रस और ध्वनि आदि विषयों का प्रतिपादन किया है, जब कि अरिसिंह ने *, जैन सन्देश- शोधाङ्क १५, दिसम्बर १९६२ ई. से साभार
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