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प्रस्तुत महाकाव्य में अथ से इति तक प्राय: सभी श्लोकों में अलङ्कारों का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। प्रसाद गुण से गुम्फित होने से अर्थ लगाने में कोई कठिनाई नहीं प्रतीत होती है।
प्रस्तुत महाकाव्य की रचना ‘भव्यजनकण्ठाभरणम्' की तुलना में प्रौढ है, अत: जान पड़ता है कि अर्हद्दास की यह दूसरी रचना है।
३. पुरुदेवचम्पू:- कविवर अर्हद्दास की तीसरी कृति 'पुरुदेवचम्पू:' है। इसके दस स्तवकों में, जिनमें गद्यांशों के बीच-बीच में क्रमश: ७४+७१+६५+७१+४१+ ४८+४४+४६+३८+५०= कुल ५४८ पद्य भी हैं। इसमें 'मुनिसुव्रतकाव्यम्' से १४० पद्य अधिक हैं। इसमें प्राय: सभी प्रसिद्ध छन्दों का प्रयोग किया गया है।
__ आदिपुराण के आधार पर इस चम्पूकाव्य में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जीवनवृत्त अलंकृत संस्कृत भाषा में वर्णित है। आदि से अन्त तक शैली इतनी मनोहारिणी है कि सहृदय पाठक का मन कहीं ऊब नहीं सकता।। . अर्हद्दास ने अपनी इस कृति की कविता के बारे में लिखा है- “कि मेरी यह कवितालता भगवान् की भक्ति के बीच से उत्पन्न हुई है। अत्यन्त सुन्दर कोमल शब्द इसके पत्ते हैं; विविध छन्द इसकी कोपलें हैं; अलङ्कारों की चमत्कृति इसके फूल हैं, इस पर व्यङ्ग्यार्थ की निराली छवि छाई हुई है और यह भगवान् ऋषभदेवरूपी कल्पवृक्ष का आश्रय पाकर बढ़ रही है। (कितना सुन्दर रूपक बांधा है, पृ० ४)
इसी ढंग की रचना प्रस्तुत कृति में प्राय: आदि से अन्त तक है। उपलब्ध २४६ चम्पुओं में प्रस्तुत चम्पू का अपना स्वतन्त्र स्थान है।
अर्हद्दास की उक्त तीनों कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं-पहली हिन्दी टीका के साथ और दूसरी संस्कृत और हिन्दी दो टीकाओं के साथ। यदि तीसरी कृति भी संस्कृत एवं हिन्दी टीकाओं के साथ प्रकाशित हो जाय तो जिज्ञासु जैन व जैनेतर साहित्यिकों को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। केवल हिन्दी अनुवाद से ऐसे ग्रन्थों का चमत्कार प्रकट नहीं किया जा सकता।
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