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जान पड़ता है कविवर की यह प्रथम रचना है जो उन्होंने आशाधर जी से प्रभावित होते ही तैयार की थी। २. मुनिसुव्रतकाव्यम्
प्रस्तुत महाकाव्य दस सर्गों में समाप्त हुआ है, जिनके श्लोकों की संख्या क्रमश: ५४+३४+३३+४७+४२+४४+३१+२३+३५+६५=कुल ४०८ है। इसमें बीसवें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत का जीवनवृत्त विविध छन्दों में वर्णित है। प्रसङ्गतः देश, नगर एवं ऋतुओं का भी अलंकृत संस्कृत भाषा में सजीव वर्णन किया गया है। प्रस्तुत महाकाव्य धनञ्जय, वीरनन्दी, हरिचन्द्र एवं असग आदि महाकवियों के महाकाव्यों की तुलना में छोटा है, फिर भी इसका महत्त्व कम नहीं है। इसका वर्ण्य विषय संक्षिप्त होकर भी सारगर्भ है। इसमें महत्त्व का कुछ अनुमान निम्नलिखित कतिपय पद्यों से लगाया जा सकता है
प्रबन्धमाकर्ण्य महाकवीनां प्रमोदमायाति महानिहैकः। विधूदयं वीक्ष्य नदीन एव विवृद्धि मायाति जडाशया न ।।
- मुनिसुव्रतकाव्यम् - १/१६ अर्थात्- महाकवियों के प्रबन्धकाव्य को सुनकर कोई महान् पुरुष ही प्रसन्न होते हैं, न कि सब। देखिए न चन्द्रोदय को देखकर केवल समुद्र ही वृद्धिगत होता है, न कि जलाशय-नदी-नाले आदि।
इस पद्य में श्लेषगर्भ 'जडाशयाः' पद कम चमत्कारजनक नहीं है। इसका एक अर्थ ‘जलाशय' है और दूसरा मूर्ख।
उत्तुङ्गगोत्र प्रभवा भवत्यो, भजन्तु भूचक्रबहिष्कृतं किम्। इति स्रवन्नरुदधिं सरन्ती रवैभि यत्रालिंगणों रुणाद्धि ।। १।। २५।।
इस पद्य में बिहार प्रान्त की नदियों पर बनाये गये पुलों का सरस वर्णन किया गया है। जान पड़ता है वे पुल समुद्र की ओर जाने वाली नदियों को यह कह कर रोक रहे हैं कि आप समुन्नत पर्वतों से जन्मी हैं-उनकी कुलीन कन्याएँ हैं, फिर उसका आश्रय कैसे ले रही हैं जो भूमण्डल से बहिष्कृत (भूण्डल की सीमा से बाहर-तिरस्कृत) है।
प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा के साथ समासोक्ति के आ जाने से चमत्कार बढ़ गया है। जहां प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के व्यवहार का आरोप हो वहां समासोक्ति अलङ्कार होता है। यहां नदियों में कुलीन कन्याओं के व्यवहार का आरोप है, समुद्र में बहिष्कृत परपुरुष. का और पुलों पर सखिवर्ग का।
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