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• तथागतो वीक्ष्य खरान् स्मरान् तपोबलाच्चारुभगा खरी सन्।
तदा रतिं तैस्तनुते स्म रागात्ततः स जातो भगवत्समाख्यः ।। ५७।।
अर्थात्- कतिपय काम पीड़ित गदहों को देख कर तथागत-गौतमबुद्ध ने तपोबल से सुन्दर गदही का रूप धारण किया और फिर राग पूर्वक उनके साथ रति की-उनकी काम पिपासा को शान्त किया, इसीलिए वे 'भगवान' कहे जाने लगे। भग अर्थात् योनि से युक्त हो जाने से वे भगवान् (योनिमान्) हुए।
(इसका उल्लेख वादीभसिंह सूरि ने अपनी ‘गद्यचिन्तामणि:' के प्रथम लम्भ में किया है। अन्तर केवल इतना है कि इन्होंने खरी के स्थान में ऊंटनी (वालेयी) लिखा है।)
सिताम्बराः सिद्धिपथच्युतास्ते जिनोक्तिपु द्वापरशल्यविद्धाः । निरञ्जनानामशनं यदेते निर्वाणमिच्छन्ति नितम्बिनीनाम् ।।७४।।
अर्थात्-जिन भगवान के वचनों में सन्देह करने वाले वे श्वेताम्बर जैन मुक्तिमर्ग से च्युत हैं, जो केवली को कवलाहारी और औरतों को मोक्ष मानते हैं।
त्यक्ताखिलज्ञोदितमुख्यकालद्रव्यास्तिता
द्राविडसंघिनो ये। निःसंयमा ये च निरस्तपिच्छा
निष्कुण्डिका ये च निरस्तशौचाः ।।७६।। अर्थात्-सर्वज्ञभाषित निश्चयकाल को न मानने वाले द्रविड़ संघ के अनुयायी (सिद्धान्त पथ से दूर हैं), जो निष्पिच्छ संघ के अनुयायी पिच्छी नहीं रखते वे संयमी नहीं हो सकते और जो निष्कुण्डिका संघ के अनुगन्ता हैं वे शौच के लिए कमण्डलु नहीं रखते अत: शौच अर्थात् पवित्रता से दूर हैं।
शवा भवन्तीह मृताङ्गिसत्त्वाः श्मशानमेषां पचनस्थली हि।। ततो ध्रुवं मांसभुजः शवादास्तदीयगेहं नियतं श्मशानम् ।।९।।
अर्थात्- मृत प्राणियों के शरीर इस संसार में शव कहे जाते हैं और इनके जलाने की भूमि श्मशान-इस दृष्टि से मांस भक्षी लोग शवभक्षी सिद्ध होते हैं और उनका घरजहां मांस पकाया जाता है-निश्चय ही श्मशान है।
प्रस्तुत कृति समन्तभद्र, आशाधर और हरिचंद्र की रचनाओं से प्रभावित है और कवित्व की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती, फिर भी अथ से इति तक पढ़ने योग्य है। इसमें समालोचना की ऐसी विशेषता है, जो ग्रन्थान्तरों में दृष्टिगोचर नहीं होती।
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