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३९. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में केवलियों की संख्या अठारह हजार दी है। ४०. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में वैक्रिय ऋद्धिधारियों की संख्या छ: सौ दी है;
और हरिवंशपुराण (७३६,३८६) में दस हजार चार सौ। ४१. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में वादियों की संख्या सात हजार दी है। ४२. तिलोयपण्णत्ती (४,११६९) में आर्यिकाओं की संख्या तीन लाख अस्सी हजार
दी है और पुराणसारसंग्रह (८८,७५) में भी यही संख्या दृष्टिगोचर होती है। ४३. पुराणसारसंग्रह (८८,७७) में श्राविकाओं की संख्या चार लाख एकानवे हजार
दी है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में दी गयी संख्याएँ इनसे प्रायः भिन्न हैं। ४४. उत्तरपुराण (५४,२७१) में चन्द्रप्रभ के मोक्षकल्याणक की मिति फाल्गन शक्ला
सप्तमी दी गयी है, पुराणसारसंग्रह (९०,७९) में मिती नहीं दी गयी केवल
ज्येष्ठा नक्षत्र का उल्लेख किया है। ४५. ग्रामाः कुक्कुटसंपात्याः सारा बहुकृषीबला:। पशुधान्यधनापूर्णा नित्यारम्भा
निराकुलाः।। - उत्तरपुराण, पृष्ठ ४५, श्लोक १५. . ग्रामैः कुक्कुटसंपात्यैः सरोभिर्विकचाम्बुजैः। सीमभिः सस्यसंपनैर्यः समन्ताद्विराजते।।
- चन्द्रप्रभचरित, सर्ग २, श्लोक ११८. ४६. श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः। पद्मनाभोऽहमिन्द्रोऽस्मान् पातु
चन्द्रप्रभः प्रभुः।। उत्तरपुराण, पृष्ठ ६५, श्लोक २७६। यः श्रीवर्मनृपो बभूव विबुधः सौधर्मकल्पे ततस्तस्माच्चाजितसेनचक्रभृदभूद्यश्चाच्युतेन्द्रस्ततः । यश्चाजायत पद्मनाभनृपतियों वैजयन्तेश्वरो य: स्यात्तीर्थंकर: स सप्तमभवे चन्द्रप्रभः पातु नः।।
- चन्द्रप्रभचरित, पृष्ठ ४६१, प्रशस्ति श्लोक ६. ४७. अशोकस्तवकेनेव यौवनेन ममामुना। रागिणा केवलं किन्नु न यत्र फलसंभवः ।।
वारिधेरिव लावण्यं विरसं मम सर्वथा। न यत्रापत्यपद्मानि तेन कान्तजलेन किम्।। नाममात्रेण सा स्त्रीति गुणशून्येन कीर्त्यते। पुत्रोत्पत्त्या न या पूता यथा शक्रवधूटिका।। प्रसादोऽपि न मे भर्तुः शोभायै सूनुना विना। शब्दानुशासनेनैवं विद्वत्ताया विजृम्भितम्।। साहं मोहतमश्छन्ना निशेवोद्वेगदायिनी। दीयते यदि नो पुत्रप्रदीप: कुलवेश्मनि।। चिन्तयन्तीति सा बाला कपोलन्यस्तहस्तका। पातयामास
सभ्यानां नेत्रभृङ्गान् मुखाम्बुजे।। - जिनदत्तचरित १,६१-६६। ४८. 'साकेतं कोशलायोध्या' अभिधानचिन्तामणि ४,४१। ४९. इसी तरह से चन्द्रप्रभचरित के अन्तिम सर्ग का लगभग आधा भाग उमास्वामी * के तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर बनाया गया है। ५०. 'पुण्यपापयोर्बन्धेऽन्तर्भावान्न भेदेनाभिधानम्।' इति हरिभद्रकृतायां वृत्तौ, पृष्ठ २७
(सूरत संस्करण)।
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