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________________ पं. अमृतलाल जी शास्त्री : विद्वानों की दृष्टि में ज्ञानदीप पंडित अमृतलाल जैन __ आचार्य दयानन्द भार्गव जैनविद्या के पांडित्य की अनेक धाराएं हैं। प्रथम धारा के अन्तर्गत वे लोग आते हैं जो गृहत्यागी हैं। स्पष्ट है कि इनकी जैनविद्या के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता है तथा सामान्यत: ये समाज से जुड़े लोग हैं। प्राय: इनकी भक्त मंडली भी होती है। दूसरी धारा गृहस्थ . पंडितों की है। ये पंडित सामान्यत: श्रावकाचार का पालन करते हैं और शास्त्रों के गंभीर अध्ययन में रत रहते हैं। तीसरी धारा विश्वविद्यालय के अध्यापकों की है, इनका वैदुष्य समीक्षात्मक दृष्टि की अपेक्षा तो प्रखर होता है किन्तु ग्रन्थ की पंक्ति लगाने में इनकी इतनी गति प्रायः नहीं होती जितनी परम्परागत पंडितों की होती है। चौथी धारा विदेशी विद्वानों की है। इनके जीवन में जैन धर्म के उपदेशों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता किन्तु समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में वे अत्यन्त निपुण होते हैं। * पंडित अमृतलाल जैन का स्थान दूसरी धारा के विद्वानों में अग्रगण्य है। ऊपर हमने जिन धाराओं का उल्लेख किया है उन सभी धाराओं के विद्या-व्यसनियों को ग्रन्थों की पंक्ति लगाने की आवश्यकता होती है और इस कार्य में इन सबको ही परम्परागत पण्डितों का सहारा लेना पड़ता है। एक प्रौढ़ परम्परागत पंडित होने के नाते न जाने पंडित अमृतलाल जैन ने कितने ही ऐसे विद्या व्यसनियों का उपकार अपने जीवन में किया होगा। उनका जितना सम्मान किया जाय उतना कम है। एक सत्य यह है कि परम्परागत पंडित देता सबसे अधिक है और लेता सबसे कम है, इसीलिए जहाँ अन्य धाराओं के काम करने वालों की संख्या पिछले वर्षों में बढ़ी है वहाँ परम्परागत पंडितों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। पं० अमृतलाल जी जैन जैसे व्यक्तित्व का होना अन्धकार में जलते हुए दीपक के समान है। उनका सच्चा सम्मान तो यह है कि समाज के कुछ तरुण जिज्ञासु उनके ज्ञानदीप से अपना ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित करने के लिए आगे आयें जिनके योगक्षेम की व्यवस्था भी समाज करे अन्यथा धीरे-धीरे परम्परागत पाण्डित्य के लुप्त हो जाने की आशंका है और यदि परम्परागत पांडित्य लुप्त हो जाता है तो जैन वैदुष्य की शेष तीन धारा की समृद्धि नहीं रह पायेगी। जैन समाज को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। पूर्व विभागाध्यक्ष जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म और दर्शन जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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