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व्याख्याकार का समय
प्रस्तुत व्याख्या में अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, अनेकार्थसंग्रह, अभिधानचिन्तामणि, अमरकोष, नाममाला, नानार्थकोष (गद्यात्मक), नीतिवाक्यामृत, वाग्भटालङ्कार, विश्वप्रकाश, विश्वलोचन, वैजयन्ती, शाकटायन और समवसरण स्तोत्र - इत्यादि ग्रन्थों
अवतरण हैं। इनमें अनेकार्थसंग्रह और अभिधानचिन्तामणि के रचयिता आ० हेमचन्द्र (वि० १२वीं शती) हैं, अतः व्याख्याकार इनके उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं | चन्द्रप्रभचरित (१८,१; पृष्ठ ४२९) की व्याख्या में 'गंभीरं मधुरं ......' इत्यादि पद्म उद्धृत हैं, जो अज्ञातसमय विष्णुसेन के समवसरण - - स्तोत्र ( प० २९) और वि०सं० की १३वीं शती के आचारसार (४,९५) में पाया जाता है। यदि यह पद्य आचारसार का ही सिद्ध हो जाये तो व्याख्याकार इनके बाद के सिद्ध होते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'कन्नड़ प्रान्तीय-ताड़पत्र - ग्रन्थसूची ( पृ० १२३) के अनुसार व्याख्याकार का समय 'प्रमोदूत' (प्रमोद) संवत्सर माघ शु० प्रतिपद् रोहिणी नक्षत्र है, जिसे पं० कमलाकान्तजी शुक्ल, प्राध्यापक ज्योतिष विभाग, सम्पूर्णानन्द सं०वि०वि०, वाराणसी ने वि० सं० १५६० (शक०सं० १४२५) माघ शुक्ला प्रतिपदा शनिवार प्रमाणित किया है । १०
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१५. चन्द्रप्रभचरित संस्कृत पञ्जिका
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प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम परिशिष्ट में संस्कृत पञ्जिका भी मुद्रित की गयी है। संस्कृत व्याख्या की भाँति यह भी अभी तक अप्रकाशित रही। जिसमें ग्रन्थ के क्लिष्ट पदों का अर्थ खोला जाये, उसे पञ्जिका कहते हैं— 'विषमपदपञ्जिका' यह परिभाषा प्रस्तुत पञ्जिका में अक्षरशः घटित होती है। द्वितीय सर्ग के दार्शनिक पद्यों पर इसमें अच्छा प्रकाश डाला गया है, जिससे पञ्जिकाकार का दार्शनिक वैदुष्य व्यक्त होता है। प्रारम्भिक दो सर्गों की पञ्जिका व्याख्या का काम करती है। इसकी रचना अपेक्षाकृत प्रौढ़ है ।
पञ्जिकाकार का नाम- जिन आदर्श प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया गया है, उनमें इसके रचयिता का नाम अङ्कित नहीं है, पर डॉ० कस्तूरचन्द्र जी कासलीवाल, जयपुर ने अपने यहाँ की हस्तलिखित प्रतियाँ देखकर इनका नाम गुणनन्दी बतलाया है, जो 'जिनरत्नकोश' (भाग १, पृष्ठ १२० ) में भी दिया गया है।
पञ्जिकाकार का समय- 'जिनरत्नकोश' (भाग १, पृष्ठ १२० ) में पञ्जिकाकार का समय वि०सं० १५९७ दिया गया है। पञ्जिका में अनगारधर्मामृत, अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, अमरकोष, आत्मानुशासन, आप्तमीमांसा, कामन्दकीयनीतिसार, १०१ काव्यादर्श, तत्त्वार्थसूत्र, पञ्चसंग्रह, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका, माधवनिदान, रघुवंश और वाग्भटालङ्कार आदि ग्रन्थों के उद्धरण दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें से अनगारधर्मामृत की रचना वि० सं० १३०० में समाप्त हुई। इससे पञ्जिकाकार आशाधर के उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं । पञ्जिकाकार ने प्रथम को छोड़कर शेष सभी सर्गों की पञ्जिका के प्रारम्भ में
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