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किया गया है।
प्रस्तावना के अन्तर्गत विद्वान् सम्पादक ने १४ पृष्ठों में प्रस्तुत कृति का बड़े ही सुन्दर रूप में परिचय दिया है। इसके पश्चात् मूलपाठ दिया गया है। ग्रन्थ का मुद्रण अत्यन्त स्पष्ट व साजसज्जा भी नयनाभिराम है। एक महत्त्वपूर्ण और अप्रकाशित ग्रन्थ को सम्पादित और प्रकाशित कर आचार्य कलाप्रभसागर जी महाराज ने विद्वत् जगत् का महान् उपकार किया है। इसके लिये वे बधाई के पात्र हैं।
जैन सिद्धान्त भास्कर, जिल्द ५०-५१ १९९७-९८ ई० संयुक्तांक, प्राच्य दुर्लभ पाण्डुलिपि विशेषांक २; सम्पादक - डॉ० ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार; पृष्ठ १६+१७३ + ३०९; मूल्य २००/- रुपये।
प्राचीन साहित्य के रूप में पाण्डुलिपियाँ और उनके संग्रह के रूप में समय-समय पर बड़ी संख्या में प्रतिष्ठापित किये गये ग्रन्थ भण्डारों में से अनेक विभिन्न कारणों से नष्ट हो गये, फिर भी जो कुछ आज शेष रह गया है उसकी सुरक्षा कर पाना भी अत्यधिक व्ययसाध्य होने से प्राय: दुष्कर हो गया है।
अब से लगभग सौ - सवासौ वर्ष पूर्व विभिन्न विद्वानों का ध्यान पाण्डुलिपियों के संरक्षण और ग्रन्थ भण्डारों की सुरक्षा तथा उनके सूचीपत्रों के प्रकाशन की ओर गया और उन्होंने इसके लिए गम्भीर प्रयास प्रारम्भ किया जो आज भी जारी है। ऐसे विद्वानों में पीटर पीटर्सन, रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर, चीमनलाल डाह्याभाई दलाल, पं० लालचन्द भगवान्दास गांधी, मुनि पुण्यविजय जी, मुनि जिनविजय जी, श्री अगरचन्द्र नाहटा, श्री भँवरलाल नाहटा, पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह आदि का नाम उल्लेखनीय है ।
जैन सिद्धान्त भवन, आरा में भी उसके संस्थापकों एवं संचालकों द्वारा समय-समय पर पाण्डुलिपियों का संग्रह किया जाता रहा है। अब तक वहाँ लगभग ६००० पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हो चुकी हैं। लगभग १००० पाण्डुलिपियों के सूची- पत्र के रूप में प्रथम भाग का १९९५ ई० में प्रकाशन किया गया था। प्रथम भाग की भाँति इस भाग में भी लगभग १००० पाण्डुलिपियों की विस्तृत सूची दी गयी है। पाटण, खम्भात, जैसलमेर, पूना, लिम्बडी, अहमदाबाद आदि स्थानों के ग्रन्थ भण्डारों के प्रकाशित सूचीपत्रों के समान ही इस सूचीपत्र का सर्वत्र आदर होगा। ऐसे श्रमसाध्य उपयोगी और प्रामाणिक सूची के प्रणयन और प्रकाशन के लिये इसके संग्राहक, सम्पादक और प्रकाशक सभी बधाई के पात्र हैं !
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