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की चौदहवीं शताब्दी का प्रथम चरण माना गया है। इनके ‘मुनिसुव्रत काव्यम्' के प्रथा सर्ग का चौंतीसवाँ श्लोक
यत्रावित्वं फलिताटवीषु पलाशिताद्रौ कुसुमें परागः।
निमित्तमात्रे पिशुनत्व मासीनि रौष्ठ्यकाव्येष्वपवादिता च।। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ एक्कानवे पर उद्धृत है। अत : अजितसेन ने 'अलङ्कार चिन्तामणि' की रचना अर्हद्दास के बाद की थी, यह निश्चित है। जब तक और प्रमाण नहीं मिलते तब तक अजितसेन का समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का मध्यभाग माना जाना चाहिए।
आभ्यन्तर परिचय- प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच परिच्छेदों में विभाजित है। पहला परिच्छेद सबसे छोटा है। इसमें कुल एक सौ तीन श्लोक हैं। उनमें कविता करने के उपाय एवं कवि बनाने वाले को शिक्षा दी गई है। समस्यापूर्ति कैसे की जाय, इस पर भी कुछ प्रकाश डाला गया है। दूसरे परिच्छेद में शब्दालङ्कार के चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास
और यमक के चार भेद बतलाकर चित्रालङ्कार का विस्तार से वर्णन किया है। तीसरे परिच्छेद में वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। चौथे परिच्छेद में उपमा, अन्वय, उपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान्, अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, व्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, असद्गुण, विरोध, विशेष, अधिक, विभाव, विशेषोक्ति, असङ्गति, चित्र, अन्योन्य, तुल्य योगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, श्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्त, प्रतीप, अनुमान, काव्यलिङ्ग, अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य, अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधिक, भाविक, प्रेय, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, उदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, मालादीपक, सार, संसृष्टि और सङ्कर इस तरह कुल सत्तर अर्थालङ्कारों का विस्तार से वर्णन किया है। पाँचवें परिच्छेद में नौ रस, चार रीति, दो पाक-द्राक्षा और शय्या, शब्द का स्वरूप, शब्द के भेद- रूढ़, यौगिक और तन्मिश्र, तीन प्रकार के अर्थवाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य, चार प्रकार की लक्षणा-जहल्लक्षणा, ऊजहलक्षणा, सारोपालक्षणा
और साध्यवसाना लक्षणा, चार प्रकार की वृत्तियाँ- कौशिकी, आरभटी, सात्वती और भारती, पाब्दचित्र, अर्थ, चित्र, व्यङ्गयार्थ के परिचायक संयोगादि, गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार से वर्णित हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में वक्रोक्ति अलङ्कार का वर्णन दो बार किया गया है। पहले तीसरे .. परिच्छेद में और फिर चौथे में। क्योंकि वक्रोक्ति दो प्रकार की होती है पहली शब्दशक्ति मूलक और दूसरी अर्थशक्तिमूलक। पहली का वर्णन तीसरे परिच्छेद में और दूसरी का
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