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चौथे में किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में वे सभी विषय आ गये हैं, जिनका वर्णन अलङ्कार शास्त्र में होता है। हाँ, दो विषय नहीं आ सके, पहला नाटक या दृश्य काव्य सम्बन्धी और दूसरा ध्वनि सम्बन्धी। पहला विषय क्यों छोड़ दिया, इसका हेतु ग्रन्थकार ने नहीं दिया, पर दूसरे के बारे में लिखा है कि विस्तृत होने से हम ध्वनि का निरूपण नहीं करेंगे'ध्वनि विशेषं न ब्रूमो विस्तरत्वात्', पृष्ठ – एक सौ चौबीस ।
ध्वनि के साथ 'विशेष' पद जुड़ा हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में अभिधा मूलक और लक्षणा मूलक ध्वनि के भेदों तथा उनके भी अवान्तर भेदों का वर्णन नहीं किया जायगा, पर सामान्य रूप से तो उनकी चर्चा की जायगी।
प्रस्तुत ग्रन्थ के पञ्चम परिच्छेद में ग्रन्थकार ने काव्य के तीन भेद किए हैं(१) ध्वनि, (२) गुणीभूत व्यङ्गय और (३) चित्र । पहला उत्तम, दूसरा मध्यम और तीसरा अधम काव्य कहलाता है। वाच्यार्थ से व्यङ्ग्यार्थ के प्राधान्य होने पर 'ध्वनि ' व्यवहार होता है, वाच्यार्थ से व्यङ्ग्यार्थ के अप्राधान्य होने पर 'गुणीभूत व्यङ्गय' व्यवहार है और व्यङ्गार्थ के अस्फुट होने पर 'चित्र' व्यवहार होता है
गौणागौणास्फुटत्वेभ्यो व्यङ्ग्यार्थस्य निगद्यते ।
काव्यस्य तु विशेषोऽयं त्रेधा मध्यो वरोऽधरः । ।
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व्यङ्ग्यस्यामुख्यत्वेन मध्यमकाव्यं गुणीभूतव्यङ्गयमित्युच्यते । प्राधान्ये उत्तमं काव्यं ध्वनिरितीष्यते। अस्फुटत्वेऽधमं तच्चित्रमिति निरूप्यते।' पृष्ठ — एक सौ तेईस ।
प्राचीन सम्प्रदायों का समन्वय - लक्षण ग्रन्थों में प्रमुख पाँच सम्प्रदायों की चर्चा आती है- (१) रस, (२) अलङ्कार, (३) रीति, (४) वक्रोक्ति और (५) ध्वनि । इनके प्रवर्तक हैं क्रमश:- (१) भरत, (२) भामह, (३) वामन, (४) कुन्तक और (५) आनन्दवर्धन। अजितसेन ने अपने ग्रन्थ में इन पाँचों का समन्वय किया है, जैसा कि उनके काव्य के लक्षण से स्पष्ट है
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शब्दार्थालंकृतीद्ध
नवरसकलितं रीतिभावाभिरामं
व्यङ्गयाद्यर्थ विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढ्यम् । लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्र्यंसुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः
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कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम्।। पृष्ठ एक
प्रस्तुत ग्रन्थ के तीन अंश प्रस्तुत ग्रन्थ को तीन अशों में विभक्त किया जा "सकता है— पहला मूल कारिकाओं का अंश है, जिनमें लक्षण दिए गए हैं, दूसरा वृत्ति का अंश है, जिसमें कारिकाओं के कठिन विषय स्पष्ट किए गए हैं और तीसरा
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