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________________ ५८ हुए हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं (१) अतिरुचिरा, (२), अनुष्टुप् (३) इन्द्रवज्रा, (४) उद्गता, (५) उपजाति, (६) उपेन्द्रवज्रा, (७) औपच्छन्दसिक, (८) क्षमा, (९) जलधरमाला, (१०) जलोद्धतगति, (११) द्रुतविलम्बित, (१२) नर्कुटक, (१३) पुष्पिताग्रा, (१४) पृथ्वी, (१५) प्रमिताक्षरा, (१६) प्रहर्षिणी, (१७) भ्रमरविलसित, (१८) मन्दाक्रान्ता, (१९) मालिनी, (२०) रथोद्धता, (२१) वंशस्थ, (२२) वंशपत्रपतित, (२३) वसन्ततिलका, (२४) वसन्तमालिका, (२५) शार्दूलविक्रीडित, (२६) शालिनी, (२७) शिखरिणी, (२८) सुन्दरी, (२९) स्रग्धरा, (३०) स्वागाता, (३१) हारिणी । ८८ १२. चन्द्रप्रभचरित की समीक्षा वीरनन्दी को चन्द्रप्रभ का जो संक्षिप्त जीवनवृत्त स्रोतों से समुपलब्ध हुआ, उसे उन्होंने अपने चन्द्रप्रभचरित में खूब ही पल्लवित किया है । चन्द्रप्रभ के जीवनवृत्त को लेकर बनायी गयीं जितनी भी दिगम्बर - श्वेताम्बर कृतियाँ सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें वीरनन्दी की प्रस्तुत कृति ही सर्वाङ्गपूर्ण है। इसकी तुलना में उत्तरपुराणगत चन्द्रप्रभचरित भी संक्षिप्त-सा प्रतीत होता है, जो उपलब्ध अन्य सभी चन्द्रप्रभचरितों से, जिनमें हेमचन्द्र का चन्द्रप्रभचरित भी शामिल है, विस्तृत है। अतः केवल कथानक के आधार पर ही विचार किया जाये तो भी यह मानना पड़ेगा कि वीरनन्दी को सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है। सरसता की दृष्टि से तो इनकी कृति का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है । वीरनन्दी का चन्द्रप्रभचरित अपनी विशेषताओं के कारण संस्कृत महाकाव्यों में विशिष्ट स्थान रखता है। कोमल पदावली, अर्थ सौष्ठव, विस्मयजनक कल्पनाएँ, अद्भुत घटनाएँ, विशिष्ट संवाद, वैदर्भी रीति, ओज, प्रसाद तथा माधुर्य गुण, विविध छन्दों और अलङ्कारों की योजना, रस का अविच्छिन्न प्रवाह, प्राञ्जल संस्कृत, महाकाव्योचित प्रासंगिक वर्णन और मानवोचित शिक्षा आदि की दृष्टि से प्रस्तुत कृति अत्यन्त श्लाघ्य है। प्रस्तुत कृति में वीरनन्दी की साहित्यिक, दार्शनिक और सैद्धान्तिक विद्वत्ता की त्रिवेणी प्रवाहित है। साहित्यिक वेणी (धारा) अथसे इति तक अविच्छिन्न गति से बही है । दार्शनिक धारा का सङ्गम दूसरे सर्ग में हुआ है और सैद्धान्तिक धारा सरस्वती की भाँति कहीं दृश्य तो कहीं अदृश्य होकर भी अन्तिम सर्ग में विशिष्ट रूप धारण करती है । पर कवि की अप्रतिम प्रतिभा ने साहित्यिक धारा को कहीं पर भी क्षीण नहीं होने दिया। फलतः दार्शनिक और सैद्धान्तिक धाराओं में पूर्ण सरसता अनुस्यूत है। अश्वघोष और कालिदास की भाँति वीरनन्दी को अर्थ चित्र से अनुरक्ति है । यों इन तीनों महाकवियों की कृतियों में शब्दचित्र के भी दर्शन होते हैं, पर भारवि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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