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________________ एकाक्षरचित्र है। व्यक्षरचित्र- धीरधीरारिरुधिरैरुरुधाराधरैररम्। धरा धराधराधारा रुरुधेऽधोऽधराधरा।।१५,४९ आदि से अन्त तक 'ध' और 'र' - इन दो व्यञ्जनों के रहने से यहाँ द्विव्यञ्जनचित्र या व्यक्षर चित्र है। काकुवक्रोक्ति विशदामसमुज्झितान्वयां नयसारामविहीनसौष्ठवाम्। गिरमेष कदाचिदीदृशीमभिदध्यादथवा बृहस्पतिः।।१२, १०० 'अथवा बृहस्पति भी कभी ऐसे वचन कह सकते हैं?' - इस तरह कण्ठध्वनि के परिवर्तन के साथ अर्थ करने पर यहाँ ‘काकुवक्रोक्ति' अलङ्कार घटित होता है। (ख) अर्थालङ्कार , चन्द्रप्रभचरित में जिन अर्थालङ्कारों का प्रचुर मात्रा में सन्निवेश है, उनके नाम इस प्रकार हैं- पूर्णोपमा (१,३१), मालोपमा, (१६,१७), लुप्तोपमा (११,१५), उपमेयोपमा (१०,२७), प्रतीप (३,३), रूपक (१५,५३), परम्परितरूपक(१.१०), परिणाम (५,६०), भ्रान्तिमान् (१,२६;१,२७,६,९;९,३०,१५,५,१४,३२,१४,३८ आदि), अपहृति (५,४३), कैतवापहृति (१४,६४), उत्प्रेक्षा (१,१३), अतिशयोक्ति (१६,३६), अन्तदीपक (१,४५), तुल्ययोगिता (१५,१३५), प्रतिवस्तूपमा (१,६३), दृष्टान्त (११,२१), निदर्शना (४,२४), व्यतिरेक (१,४४), सहोक्ति (३,६६), समासोक्ति (१,१६), परिकर (१७,६२), श्लेष (२,१४२), अप्रस्तुतप्रशंसा (१५,१३४), पर्यायोक्त (१६,२६), अन्य प्रकार का पर्यायोक्त (९,२४), विरोधाभास (१,३७), विभावना (१,५९), अन्य प्रकार की विभावना (६,६६), विशेषोक्ति (४,६), विषम (१५,१३०), अधिक (२,२४), अन्योन्य (१४,१४), कारणमाला (४,३७; ४,३८), एकावली (१,३५), परिवृत्ति (९,४३), परिसंख्या (२,१३८), समुच्चय (३,४९), अर्थापत्ति (१,७३), काव्यलिङ्ग (४,१९), अर्थान्तरन्यास (४,११), तद्गुण (१४,२९), लोकोक्ति (२,२६), स्वभावोक्ति (१४,६३), उदात्त (२,१२८), अनुमान (९,१३), रसवत् (१५,८), प्रेय (१५, १४४), ऊर्जस्वित् (८,२०), समाहित (८,४५), भावोदय (८,२१), संसृष्टि (१,१०) और सङ्कर८७ (८,४३)। ११. चन्द्रप्रभचरित में छन्द योजना चन्द्रप्रभचरित में एक मात्रिक (औपच्छन्दसिक) और तीस वर्णिक छन्द प्रयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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