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________________ साहित्य सत्कार युगप्रधान आचार्य जिनदत्तसूरि का जैनधर्म एवं साहित्य में योगदान, लेखिका-डॉ० स्मितप्रज्ञा श्री, प्रकाशक - विचक्षण स्मृति प्रकाशन, खरतरगच्छ ट्रस्ट, दादासाहबनांपगला, नवरंगपुरा, अहमदाबाद ३८०००९; प्रथम संस्करण १९९९ ई०, पृष्ठ १५+२६४; आकार-डिमाई, पक्की जिल्द; मूल्य - १५० रुपये। जैनधर्म के महान् प्रभावक आचार्यों में जिनदत्तसूरि जी का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। खरतरगच्छालंकार आचार्य जिनवल्लभसूरि के शिष्य एवं पट्टधर. तथा प्रथम दादासाहब के नाम से विख्यात आचार्य जिनदत्तसूरि अपने युग के क्रान्तिकारी सन्त रहे। खरतरगच्छ के उन्नायकों में उनका अद्वितीय स्थान है। प्रस्तुत पुस्तक साध्वी डॉ० स्मितप्रज्ञाश्री द्वारा आचार्य जिनदत्तसूरि की उपलब्ध कृतियों पर किये गये विश्लेषणात्मक अध्ययन का पुस्तकाकार रूप है जिस पर उन्हें गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान की गयी है। शोधप्रबन्ध कुल ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में ग्रन्थकार के समय देश की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति की चर्चा है। द्वितीय अध्याय में खरतरगच्छ के उद्भव और विकास का २६ पृष्ठों में बड़ा ही उपयोगी वर्णन है। तृतीय अध्याय में जिनदत्तसूरि के जीवन चरित्र का १९ पृष्ठों में सविस्तार वर्णन है। चौथे अध्याय में १४५ पृष्ठों में आचार्यश्री की साहित्य-साधना का विश्लेषणात्मक अध्ययन है। यह अध्याय तीन खण्डों में विभाजित है- प्रथम खण्ड में उनके द्वारा रचित ६ संस्कृत कृतियों, द्वितीय खण्ड में १५ प्राकृत कृतियों व तृतीय खण्ड में ३ अपभ्रंश कृतियों का विवेचन है। पाँचवां और अन्तिम अध्याय उपसंहार स्वरूप है। ग्रन्थ के अन्त में ३४ पृष्ठों का परिशिष्ट भी दिया गया है जिसके अन्तर्गत जिनदत्तसूरि की अप्रकाशित कृतियों के सम्पादन और अननुवादित कृतियों का अनुवाद प्रस्तुत है। अब से लगभग ५० वर्ष पूर्व जैनधर्म और प्राचीन भारतीय भाषाओं के विशिष्ट विद्वान् महोपाध्याय विनयसागर जी ने आचार्य जिनदत्तसूरि के गुरु आचार्य जिनवल्लभसूरि की साहित्यसाधना पर एक महाग्रन्थ लिखा था जिस पर उन्हें साहित्य महोपाध्याय की उपाधि प्राप्त हुई थी। वह ग्रन्थ वल्लभभारती के नाम से प्रकाशित हुआ और इतना लोकप्रिय हुआ कि कुछ ही समय में अप्राप्य हो गया। __इसी प्रकार का एक प्रयास अब से लगभग १५ वर्ष पूर्व अंचलगच्छ की साध्वी मोक्षगुणाश्री द्वारा स्वगच्छीय आचार्य जयशेखरसूरि के व्यक्तित्व व कृतित्व पर किय गया जो दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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