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५३ है कि चन्द्रप्रभचरित में आदि से अन्त तक रस की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित है। यहाँ इसके मुख्य रसों का उल्लेख प्रस्तुत है।
शान्तरस- चन्द्रप्रभचरित का अङ्गी (प्रधान) रस शान्त है, जो इसके प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पञ्चम, एकादश, पञ्चदश (१३३-१६१), सप्तदश और अन्तिम अष्टादश सर्ग में प्रवाहित है। इन सर्गों में विरक्ति के कारणों के मिलने पर संसार, शरीर, यौवन, जीवन और विषयों की अनित्यता, मनिदर्शन, दीक्षा, तपस्या, दिव्य देशना
और मुक्ति की प्राप्ति वर्णित है। उदाहरण के लिए १, ७८; ४, २५; ११, १७; १५, १३५; १७, ६९ इत्यादि पद्य द्रष्टव्य हैं।
शृङ्गाररस- चन्द्रप्रभचरित के सप्तम सर्ग के बयासीवें पद्य से लेकर दशम सर्ग के अन्त तक शृङ्गार रस प्रवाहित है। सप्तम सर्ग के उक्त अंश में दिग्विजय के उपरान्त सम्राट् अजितसेन अपनी राजधानी में प्रवेश करते हैं। इन्हें देखने वाली नायिकाओं की विविध चेष्टाएँ शृङ्गार रस (पूर्वराग) को अभिव्यक्त करती हैं। अष्टम सर्ग में वसन्त ऋतु, नवम में उपवन यात्रा, उपवन विहार एवं जलक्रीड़ा तथा दशम में
यंकाल, अन्धकार, चन्द्रोदय और रात्रिक्रीड़ा (सुरत) वर्णित हैं, जिनमें सम्भोग और विप्रलम्भ दोनों का आस्वाद मिलता है। अन्य सर्गों में भी न्यूनाधिक मात्रा में शृङ्गार रस विद्यमान है। ७, ८३, ८, ३९; ९, २४; १०, ६० इत्यादि पद्य शृङ्गार रस के उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य हैं।
पति-पत्नी के हृदय में विद्यमान रति (स्थायीभाव) यदि एक-दूसरे के प्रति हो तो वह विभाव, अनुभाव और सञ्चारी भाव के संयोग से शृङ्गार रस के रूप में परिणत हो जाती है। यदि यही रति देव, मुनि या राजा आदि के विषय में हो तो वह 'भाव' रूप में परिणत होती है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं। देव विषया रति-१७, ३२; मुनिविषया रति ११, ४२; राजविषया रति - १२-६८।।
वीररस- ग्यारहवें सर्ग (८५-९२) में तथा पन्द्रहवें (१-१३१) में वीररस है। ग्यारहवें सर्ग के अन्त में राजा पद्मनाभ द्वारा अदम्य उत्साहपूर्वक, राजधानी में प्रलय मचाने वाले एक जंगली हाथी को वश में लाने का वर्णन है और पन्द्रहवें सर्ग के इसी हाथी को अपना बतलाकर अपमानजनक व्यवहार करने वाले राजा पृथ्वीपाल के साथ पद्मनाभ के युद्ध का वर्णन है, जो वीररस से आप्लावित है। १५, ३६; १५, ४८; १५, ५८; १५, ९९ इत्यादि पद्य इसके उदाहरण के लिए अवलोकनीय हैं।
रौद्ररस- चन्द्रप्रभचरित के छठे सर्ग में कुख्यात चण्डरुचि नामक असुर पिछले *वैर के कारण राजकुमार अजितसेन का अपहरण करके उसकी हत्या का दुष्प्रयास करता है। राजा महेन्द्र राजा जयवर्मा की अनुपम सुन्दरी कन्या शशिप्रभा को बलात् छीनने के लिए युद्ध छेड़ देता है और इसके पराजित होने पर धरणीध्वज भी शशिप्रभा को
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