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________________ 3 कटा हुआ सिर दिखलाया तो उसे उसी समय वैराग्य हो गया। इस अवसर पर उसके मुख से जो उद्गगार निकले वे स्तुत्य हैं। अन्त में वह पृथ्वीपाल का राज्य उसके पत्र को और अपना राज्य अपने पुत्र को देकर श्रीधर मुनि के निकट जिन दीक्षा ले लेता है। माघ के अन्तिम सर्ग में भ० कृष्ण द्वारा युद्ध में शिशुपाल के सिर काटने का उल्लेख है, पर उसके बाद चन्द्रप्रभचरित जैसे विचारों का वर्णन नहीं है। इस ढंग का वर्णन रघुवंश, किरात या अन्य किसी महाकाव्य में अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ। किसी भी अच्छे या बुरे काम के बाद उसके करने वाले व्यक्ति के हृदय में कुछ-न-कुछ विचार अवश्य उत्पन्न होते हैं। सत्कवि द्वारा उनकी चर्चा अवश्य की जानी चाहिए। निष्कर्ष यह कि चन्द्रप्रभचरित का युद्धवर्णन भी अपने ढंग का एक है। १२. चतुर्थ पुरुषार्थ का वर्णन- भामह ने (काव्या० १,२) में काव्य-प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है- सत्काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कला प्रवीणता, आनन्द एवं कीर्ति प्रदान करती है। विश्वनाथ ने (साहित्यदर्पण१,२) में लिखा है कि अल्पमति व्यक्तियों को भी विशेष परिश्रम किये बिना धर्म आदि पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति काव्य से ही हो सकती है, अत:.....। इस प्रयोजन की दृष्टि से वीरनन्दी अपने काव्य निर्माण में पूर्ण सफल हुए हैं। काव्योचित अन्यान्य विषयों के साथ चन्द्रप्रभचति में चारों पुरुषार्थों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। चन्द्रप्रभचरित के अन्तिम सर्ग में केवल चतुर्थ पुरुषार्थ का ही वर्णन है। इसमें सात तत्त्व, मोक्ष का स्वरूप और उसके प्राप्त करने के उपाय- इन विषयों का विस्तृत वर्णन है। इसका सीधा सम्बन्ध चन्द्रप्रभ की दिव्य देशना से है। नायक की मुक्ति प्राप्ति पर प्रस्तुत महाकाव्य की समाप्ति हुई है। सत्काव्यों के अध्ययन से चतुर्वर्ग रूप फल की प्राप्ति अलङ्कार ग्रन्थों में बतलायी गयी है तो धर्म से लेकर मोक्ष पर्यन्त चारों वर्गों या पुरुषार्थों का वर्णन भी सत्काव्यों में होना चाहिए, जैसा कि चन्द्रप्रभचरित में है। रघुवंश आदि चारों जैनेतर काव्यों में यह दृष्टिगोचर नहीं होता। किसी एकाध पद्य से इसका सम्बन्ध जोड़ दिया जाये तो वह अलग बात होगी। चन्द्रप्रभचरित का अङ्गी रस शान्त है, जिसका फल मोक्ष है, अत: इसमें मोक्ष पुरुषार्थ का वर्णन आवश्यक था, जिसे वीरनन्दी ने पूरा किया। इस तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वीरनन्दी अपने महाकाव्य के निर्माण में कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष आदि महाकवियों की अपेक्षा कहीं अधिक सफल हुए हैं। वीरनन्दी यदि जैन न होते तो इनका महाकाव्य भी रघुवंश आदि की भाँति ख्याति प्राप्त करता और प्रचार में भी आ जाता। ९. चन्द्रप्रभचरित में रस योजना ‘स कविर्यस्य वचो न नीरसम्' (चन्द्रप्रभचरित १२, १०८)- इस उक्ति से स्पष्ट है कि वीरनन्दी की दृष्टि में श्रेष्ठ कवि वह है, जिसका काव्य सरस हो। यही कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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