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________________ ५४ पाने के उद्देश्य से युद्ध के मैदान में उतर आता है, पर जयवर्मा महेन्द्र की भाँति इसके भी छक्के छुड़ा देता है। इन तीनों प्रसंगों में रौद्ररस का परिपोष हुआ है। वीभत्सरस— चन्द्रप्रभचरित के (१५, ५३) आदि कतिपय पद्यों में वीभत्सरस अभिव्यक्त है, जिसमें मांस एवं रक्तासव के सेवन से उन्मत्त डाकनियों का घडों के साथ नाचना है। करुणरस- • चन्द्रप्रभचरित (५, ५५-७१ ) में करुण रस६ प्रवाहित है, जहाँ अपहृत पुत्र के शोक में उसके पिता अजितंजय का विलाप वर्णित है। इसके उदाहरण के लिए ५, ५८, ५, ६२ आदि पद्य द्रष्टव्य हैं। अद्भुतरस— चन्द्रप्रभचरित (५, ७२-७३) में अद्भुत रस का आस्वाद होता है, जहाँ आकाश मार्ग से उतरते हुए दीप्तिसम्पन्न एक चारण मुनि को अकस्मात् देखते ही अजितंजय और उसकी सभा का विस्मित होना वर्णित है। वात्सल्यरस— चन्द्रप्रभचरित ( १७, ४३-४८) में वात्सल्य रस का भी परिपोष हुआ है, जहाँ शिशु चन्द्रप्रभ की बाललीला को देखकर उनके माता-पिता आनन्दा अनुभव करते हैं। भरत मुनि की भाँति विश्वनाथ कविराज (साहित्यदर्पण ३, २५१) इसे स्वतन्त्र र माना है। यदि यह रस वीरनन्दी को मान्य न रहा हो, तो उक्त सन्दर्भ में पुत्रविषयक रतिभाव स्वीकार्य होना चाहिए । भक्तिरस, लौल्यरस और स्नेहरस आदि सर्वमान्य नहीं हैं, अतः चन्द्रप्रभचरित में इन्हें खोज निकालना निष्फल होगा। इस तरह चन्द्रप्रभचरित में अङ्गाङ्गीभाव से प्रायः सभी रस प्रवाहित हुए हैं। १०. चन्द्रप्रभचरित में अलङ्कार योजना चन्द्रप्रभचरित में जिन अलङ्कारों का सन्निवेश है, उनका एक-एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। (क) शब्दालङ्कार छेकानुप्रास - दिव्यान् दिव्याकारकान्तासहायो भोगान् भोगी निर्विशन्निर्विशङ्कः । राज्यभ्रंशिताकारलोकश्चक्रे राज्यं यहाँ व्यञ्जनों की एक-एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है। इसमें स्वरसाम्य नहीं देखा जाता। वृत्त्यनुप्रास ― चक्री पूर्वपुण्योदयेन । । ७,९४ इत्थं नारी: क्षणरुचिरुचः क्षोभयन्नीतिरक्षः क्षीणक्षोभः क्षपितनिखिलारातिपक्षोऽम्बुजाक्षः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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