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११५ समान समझो। जो व्यवहार को स्वयं को बुरा लगता हो, वह दूसरों को भी बुरा लगेगा, अत: दूसरों के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए।
विचारों से भी हिंसा होती है। मनुष्य मननशील प्राणी है, अत: सभी मनुष्य अपने अपने अनुभव के अनुसार अपने विचार बना लेते हैं और उनका प्रचार भी करते हैं। यह अनुचित नहीं, किन्तु अनुचित यह है कि एक व्यक्ति अपने विचारों को सही और दूसरों के विचारों को गलत मान बैठे। वस्तु में अनेक विशेषताएं होती हैं। किसी की दृष्टि एक विशेषता पर पड़ती है तो किसी की दूसरी पर। ऐसी स्थिति में दोनों की विचार धारा अलग-अलग होगी और परस्पर विपरीत भी होगी, पर उनमें से एक सही और दूसरी गलत है, यह नहीं कहा जा सकता। एक ही ढाल रास्ते को, उतार की ओर जाने वाला अच्छा कहता है और चढ़ाव की ओर जाने वाला बुरा। अच्छा और बुरा इन दोनों में बड़ा अन्तर है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों में से एक का कहना सही और दूसरे का कहना गलत। ठीक यही बात दार्शनिक चिन्तन में भी समझनी चाहिए।
। इस तरह महावीर ने हिंसा से बचने के लिए अहिंसावाद, कर्मवाद, साम्यवाद, और स्याद्वाद का उपदेश दिया। फलत: वैदिक हिंसा, हिंसा माने जाने लगी और पशुओं का हवन हमेशा के लिये बन्द कर दिया गया। आज भी यज्ञ होते हैं, किन्तु उनमें अश्व आदि पशुओं की बलि नहीं दी जाती। इसका प्रथम श्रेय भगवान् महावीर को है। अत: यह स्पष्ट है कि अहिंसा भगवान महावीर की देन है।
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