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काशी के कतिपय ऐतिहासिक तथ्य
काशी-विद्वत्समाज की अनुपम विभूति महामहोपाध्याय पद्मविभूषण स्व० डॉ० श्रीगोपीनाथ कविराज का काशी की सारस्वत साधना नामक ग्रन्थ बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना से विक्रमाब्द २०२१ में प्रकाशित हुआ था।
इसमें १३वीं से १८वीं शती तक के प्रतिभाशाली विशिष्ट आचार्यों, विद्वानों एवं ग्रन्थकारों के प्रामाणिक इतिवृत्त पर विशद् प्रकाश डाला गया है, इनमें ४ जैनों (एक श्रेष्ठी और तीन आचार्य) के भी नाम हैं।
चौदहवीं शताब्दी में जैनाचार्य जिनप्रभसूरि यात्रा के लिए काशी आये थे। उस समय काशी नगरी चार भागों में विभक्त थी। उनमें से एक विभाग का नाम था-देव वाराणसी, जिसमें विश्वनाथ-मन्दिर और कई जैनमन्दिर थे। उस समय काशी में धातुवाद, रसवाद, मन्त्र विद्या, व्याकरण, तर्क, नाटक, अलङ्कार, शकुनशास्त्र या निमित्तशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं की चर्चा होती थी। काशी की सारस्वत साधना, पृष्ठ ७.
इसी शती में नाटककार हस्तिमल्ल दक्षिण भारत से काशी आये। उन्होंने अपने संस्कृत नाटक 'विक्रान्त कौरवम्' में काशी का आंखों देखा हाल विस्तार से लिखा है। इसी नाटक के आधार पर मैंने 'काशी ६०० पूर्व' शीर्षक एक लेख लिखा था, जो काशी के प्रतिष्ठित दैनिक 'आज' के दो विशेषाङ्कों में क्रमश: प्रकाशित हुआ था और दैनिक 'संसार' के एक विशेषाङ्क में। जान पड़ता है कि कविराज जी के अध्ययन कक्ष में प्रस्तुत नाटक नहीं था। अन्यथा वे हस्तिमल्ल की चर्चा अपने उक्त ग्रन्थ में अवश्य करते ।
सत्रहवीं शताब्दी में फ्रेञ्च पर्यटक वर्नियर भारत पर्यटन करते हए काशी आये थे। उन्होंने काशी के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे प्रतीत होता है कि काशी नगरी में उस समय बहुत से विद्यालय थे, जिनमें ब्राह्मण और भक्त पठन-पाठन में निरत रहते थे एवं अध्यापक अपने घरों में अथवा भक्त धनी लोगों के उद्यानों में अध्यापन करते थे। प्रत्येक अध्यापक के निकट प्राय: ४ से १५ तक विद्यार्थी रहते थे। सब विद्यार्थी १०-१५ वर्ष गुरु के समीप रहकर विद्याभ्यास करते थे। वे पहले व्याकरण पढ़ते थे तदनन्तर पुराण, उसके बाद दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष प्रभृति विषयों का भी अध्ययन अध्यापन होता था। सन् १६६७ ई० में वर्नियर ने कवीन्द्राचार्य से भेंट की थी और *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त.
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