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________________ २ ने अपने 'प्रभावकचरित' में भी यह बात कही है। जयसिंह का निश्चित समय बारहवी शती है, अतः वाग्भट्ट का भी समय बारहवीं शती है। ये आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन हैं। इसका परिचय विस्तार से अन्यत्र दिया गया है। काव्यानुशासन – काव्यानुशासन के प्रणेता आचार्य हेमचन्द्र (११वीं - १२वीं शती ई०) हैं। ये जैन समाज के ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज के भूषण थे। न्याय, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, पुराण और कोष आदि सभी विषयों पर इनका समान अधिकार था और सभी विषयों पर उन्होंने प्रामाणिक ग्रन्थ रचे हैं। इन्होंने कुल मिलाकर साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना की है। इनके साहित्य में निम्नलिखित ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं प्रमाणमीमांसा, सिद्धहेमशब्दानुशासन, द्वयाश्रयमहाकाव्य, छन्दोनुशासन, काव्यानुशासन, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, वीतरागस्तोत्र और योगशास्त्र आदि । वाग्भट ने भामह, दण्डी और रुद्रट की तरह अपना वाग्भटालंकार श्लोकों में रचा था, किन्तु हेमचन्द्र ने अपना ग्रन्थ- काव्यानुशासन वामन की तरह सूत्र - शैली में रचा। काव्यानुशासन में आठ अध्याय हैं, जिनमें कुल मिलाकर २०८ सूत्र हैं। सूत्रों में अलंकार शास्त्र सम्बन्धी- कविशिक्षा, अलंकार, रस, ध्वनि, गुण, दोष और साथ ही नाटकीय तत्त्वों पर विशद् प्रकाश डाला है। अपने सूत्रों पर अलंकार चूड़ामणि नामक वृत्ति और विशेष बातों को समझाने के लिये 'विवेक' की रचना भी स्वयं हेमचन्द्र ने की है। अलंकार आदि सिद्धान्त को पुष्ट करने के लिये 'विवेक' में ६०० से ऊपर तथा 'अलंकारचूड़ामणि' में ७०० से ऊपर पद्य उद्धृत किये हैं। उदाहरणों का चयन हेमचन्द्र ने निष्पक्ष दृष्टि से किया है। इसीलिए काव्यानुशासन में हेमचन्द्राचार्य ने जैन ग्रन्थों के साथ जैनेतर ग्रन्थों से भी उदाहरण लिये हैं। विशेषता - आचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में काव्यप्रकाश. ध्वन्यालोक और काव्यमीमांसा आदि ग्रन्थों से अधिक विषय का प्रतिपादन किया है। इनकी दृष्टि से जो कमी पूर्ववर्ती साहित्य में रह गयी थी, उसे इन्होंने काव्यानुशासन में पूरा कर दिया। काव्यप्रकाश में मम्मट ने नाटकीय तत्त्वों पर तनिक भी प्रकाश नहीं डाला, जबकि हेमचन्द्र ने इसके लिये काव्यानुशासन में एक और काव्यप्रकाश से अधिक विषयों का निरूपण किया है। ध्वन्यालोककार श्री आनन्दवर्धन ने ९ वीं शती में सबसे पहले ध्वनि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। यह इनके गहन शास्त्रीय चिन्तन का परिणाम था। किन्तु महिमभट्ट आदि कुछ विद्वानों ने ध्वनिसिद्धान्त का जोरदार खण्डन, किया और यह बतलाया कि व्यञ्जना के मानने की कोई आवश्यकता नहीं । रस का ज्ञान व्यञ्जना से नहीं, अनुमान से होता है । ११ वीं शती में आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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