________________
किया गया है इत्यादि सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे हेमचन्द्र की मौलिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। अलंकारचूड़ामणि और विवेक से विभूषित होकर काव्यानुशासन, काव्यप्रकाश से अधिक महत्त्वशाली हो गया है। काव्यप्रकाश से साहित्यदर्पण का प्रचार अधिक हुआ है। इसके दो कारण हैं- (१) काव्यप्रकाश की भाषा से साहित्यदर्पण की भाषा सरल है और (२) काव्यप्रकाश में नाटकीय तत्त्वों पर प्रकाश नहीं डाला गया है, जबकि साहित्यदर्पण में है। मेरा ख्याल है, यदि हेमचन्द्र जैन न होते तो काव्यानुशासन का प्रचार काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण से कहीं अधिक होता। समालोचकों का कहना है कि दर्पणकार साहित्यिक मर्म के प्रकाशन में उतने समर्थ नहीं, जितना कविता करने में और काव्यप्रकाशकार के बारे में उनका कहना है कि वे शब्दों के प्रयोग में कृपण थे- कम शब्दों में बहुत अर्थ प्रकट करना चाहते थे। यों देखा जाय तो यह मम्मट का गुण है, न कि दोष। आज के समय में जिज्ञासु ग्रन्थ का हृदय थोड़े परिश्रम से ही जानना चाहता है। इस दृष्टि से हेमचन्द्र बहुत सफल हुए हैं। इनका विवेचन प्रामाणिक होने के साथ-साथ सरल भी है।
आचार्य हेमचन्द्र ने 'अप्रस्तुत प्रशंसा' अलंकार का नाम 'अन्योक्ति' रखा है'सामान्यविशेष कार्ये कारणे प्रस्तुते तदन्यस्य तुल्ये तुल्यस्य चोक्तिरन्योक्तिः (काव्यानुशासन, अध्याय ६, पृष्ठ ३०७)। हेमचन्द्र के पूर्ववर्तियों में केवल रुद्रट ने इस संज्ञा का उपयोग किया था। भामह, वामन, आनन्दवर्द्धन और मम्मट आदि सभी ने 'अप्रस्तुत प्रशंसा' संज्ञा का उपयोग किया था। हेमचन्द्र के बाद के विद्वानों ने भी'अप्रस्तुत प्रशंसा' संज्ञा का उपयोग किया है, किन्तु हिन्दी-साहित्य में प्रायः सर्वत्र 'अन्योक्ति' संज्ञा का उपयोग किया गया है। इसी तरह विद्वद्जन काव्यानुशासन का ध्यान से अवलोकन करें तो और भी ऐसी बहुत सी विशेषताएँ दृष्टिगोचर होंगी।
काव्यकल्पलतावृत्ति-काव्यकल्पलता की सूत्र-रचना अरिसिंह ने की थी और इसकी वृत्ति जैनाचार्य अमरचन्द्रसूरि ने रची थी। इन दोनों का समय विद्वानों ने तेरहवीं शती निश्चित किया है। ये दोनों ही अपने समय के विशिष्ट विद्वान् थे। इनके अन्य ग्रन्थों का भी विद्वानों ने पता लगाया है। अरिसिंह ने वस्तुपाल की प्रशंसा में 'सुकृतसंकीर्तन' महाकाव्य लिखा था और अमर ने जिनेन्द्रचरित', 'स्यादिशब्दसमुच्चय', 'बालभारत', 'द्रौपदीस्वयंवर', 'छन्दो-रत्नावलि', 'काव्यकल्पलतापरिमल' और 'अलंकारप्रबोध आदि ग्रन्थ रचे थे।
प्रस्तुत ग्रन्थ में चार प्रतान हैं- १. छन्दसिद्धिप्रतान, २. शब्दसिद्धिप्रतान, ३. श्लेषसिद्धिप्रतान और ४. अर्थसिद्धिप्रतान। प्रत्येक प्रतान में क्रमश: पाँच, चार, पाँच और सात कुल इक्कीस स्तवक हैं।
कविता निर्माण करने की इसमें सुन्दर विधि बतलाई गई है और साथ में अन्य भी प्रासंगिक विषयों का वर्णन किया गया है। इस विषय में क्षेमेन्द्र, जयमंगल और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org