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हलायुध आदि विद्वानों ने भी ग्रन्थ रचे, किन्तु वे अत्यन्त संक्षिप्त होने के कारण जिज्ञासा शान्त नहीं कर पाते। प्रस्तुत ग्रन्थ का विद्वत् संसार में खूब ही प्रचार हुआ और चौदहवीं शती के ब्राह्मण विद्वान् श्री देवेश्वर को यह ग्रन्थ इतना रुचिकर हुआ कि इन्होंने इसी का आधार लेकर नवीन 'कविकल्पलता' की रचना की जिसमें यत्र-तत्र प्रस्तुत ग्रन्थ की सामग्री का उपयोग किया।
काव्यकल्पलतावृत्ति में कुछ ऐसे विषय हैं, जो कवियों के लिये बहुत ही सहायक हैं
छन्दों के अभ्यास के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखा है कि ककार आदि व्यञ्जनों को भरकर छन्दों का अभ्यास करना चाहिए। ग्यारह अक्षर वाले इन्द्रवज्रा छन्द का अभ्यास करना हो तो उसके लक्षण के अनुसार ककार आदि वर्गों का प्रयोग करें। जैसे
काका ककाका ककका कका का की की कि की की किकि की किकीकि। कुकू कुकूकू कुकुकू कुकूकु कं कं क कं कं कककं क कं कम्।।
- काव्यकल्पलतावृत्ति, प्रतान १, स्तवक २ । इसी ढंग से अन्य छन्दों का भी अभ्यास करना चाहिए। यह विधि बहुत ही सरल है।
छन्दों की पूर्ति के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में हजारों शब्दों का संग्रह कर दिया गया है, जिनके यथास्थान रख देने से छन्द की पूर्ति सरलता से हो सकती है। जैसे
अनुष्टुप छन्द बनाना हो तो निम्नलिखित अक्षरों में से कोई भी अक्षर उसके प्रथम अक्षर के लिये उपयोगी है। श्री, सं, सन्, द्राक्, विश्, आ, नि, श्राक्, सु, उत्, तत्।
इसी तरह अन्य छन्दों के लिये भी अनेक प्रकार के शब्दों का संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ में है। छन्दों के साथ अलंकारों के योग्य शब्दों का भी आश्चर्यजनक संग्रह यहाँ मिलता है। इसी तरह हजारों बातों पर इस ग्रन्थ में प्रकाश डाला गया है, जो विद्वानों को आश्चर्य में डाल देता है।
चौथे प्रतान के सातवें स्तवक में समस्यापूर्ति का क्रम भी बतलाया गया है -
प्रश्न से भी समस्यापूर्ति हो सकती है। जैसे- 'मृगात् सिंह: पलायते' इस समस्या की पूर्ति
कस्तूरी जायते कस्मात् ? को हन्ति करिणां कुलम्? किं कुर्यात् कातरो युद्धे? 'मृगात् सिंहः पलायते।।'
- काव्यकल्पलतावृत्ति, ४/७।
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