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________________ * शय्या से उठकर उसने स्नान किया, फिर चावल लेकर वह देवालय में गया, वहाँ उसने देवपूजा की, इसके पश्चात् शास्त्र सुनकर वह अपने घर चला गया। प्रारम्भ में कविता करने वालों को बहुत कठिनाई प्रतीत होती है। इसे दूर करने के लिए अजितसेन ने बतलाया है कि पहले अनुष्टुप छन्द का अभ्यास करना चाहिए। जो भी दृष्टिगोचर हो, उसी का वर्णन करना चाहिए। प्रारम्भ में वर्णनीय विषय की विशेष चिन्ता नहीं करनी चाहिए। सभी छन्दों का अभ्यास करके महाकाव्य बनाने का प्रयत्न करे। इसके लिए पहले यह देख ले कि महाकाव्य में किन-किन विषयों का वर्णन होना चाहिए और यह भी देख ले कि राजा, रानी, मन्त्री और पुरोहित आदि के वर्णन में क्या-क्या लिखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त कवियों के सिद्धान्त भी जान लेने चाहिए। प्रथम परिच्छेद में इन विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। चित्र काव्य- चित्रकाव्य में मुख्यतः शब्दों का चमत्कार होता है, न कि अर्थ का। दूसरे परिच्छेद में पद्मबन्ध, गोमूत्रिकाबन्ध, नागपाशबन्ध, मुरजबन्ध, सर्वतोभद्रबन्ध, चक्रबन्ध, दर्पणबन्ध, तालवृन्तबन्ध, पट्टबन्ध, निस्सालबन्ध, ब्रह्मदीपिकाबन्ध, शृङ्गारबन्ध, छत्रबन्ध और हारबन्ध आदि तीस-पैंतीस बन्धों का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ में और भी अनेकप्रकार के चित्र काव्य का चमत्कार दिखलाया गया है। इसमें कुछ कठिनाई अवश्य आ गई है, पर कहीं-कहीं सरलता भी पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होती है। अक्षरच्युत प्रश्नोत्तर का नमूना देखिये, कितना सरल है 'कः पञ्जरमध्यास्ते? कः परुषनिस्वनः?। कः प्रतिष्ठाजीवानां? कः पाठ्योऽक्षरच्युत:?।।' पृ० ३२ पञ्जर में कौन रहता है? कठोर शब्द वाला कौन होता है? जीवों का आश्रय क्या है और अक्षर छोड़कर क्या पढ़ा जाता है? उक्त श्लोक के चारों चरणों के प्रारम्भ में एक-एक अक्षर बढ़ा देने पर चारों प्रश्नों के उत्तर निकल आते हैं-- (१) तोता, (२) कौआ, (३) लोक, (४) श्लोक। एक-एक अक्षर बढ़ाने पर श्लोक की रचना यों हो जायगी-- “शुकः पञ्जरमध्यास्ते काकः परुषनिस्वनः। लोकः प्रतिष्ठा जीवानों श्लोकः पाठ्योऽक्षरच्युतः।।' पृ० ३२ चौथे परिच्छेद में अर्थालङ्कारों का विस्तृत विवेचन है। उसके पहले पृष्ठ बावन तिरेपन में उनका साम्य और वैषम्य वर्णित है। यों खोजने पर अन्य ग्रन्थों में भी साम्य और वैषम्य मिल सकता है, पर एक ही स्थल में किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिल सकता। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के चतुर्थ परिच्छेद का प्रारम्भिक अंश विशेष रूप से दृष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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