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अर्थालङ्कारों में साम्य- रस और भाव आदि की प्रतीति होने से प्रेय, रसवत्, अजस्वी और समाहित में साम्य है। चमत्कारजनक प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति न होने से उपमा, विनोक्ति, विरोध, अर्थान्तरन्यास, विभावना, उक्तनिमित्तविशेषोक्ति, विषम, सम, चित्र, अधिक, अन्योन्य, कारणमाला, एकावली, दीपक, व्याघात, काव्यलिङ्ग, अनुमान, यथासंख्य, अर्थापत्ति, सार पर्याय परिवृत्ति, समुच्चय, परिसंख्या, विकल्प, समाधि, प्रत्यनीक, विशेष, मलीन, सामान्य, असङ्गति तद्गुण, अतद्गुण, व्याजोक्ति, प्रतिपदोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक और उदात्त इन अलङ्कारों में साम्य है। प्रतीयमान अर्थात् व्यङ्ग्य अर्थ में रहने से व्याजस्तुति, उपमेयोपमा, समासोक्ति, पर्यायोक्ति, आक्षेप. परिकर, अनन्वय, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत, प्रशंसा और अनुरक्त निमित्त विशेषोक्ति में साम्य होता है। उपमा व्यङ्ग्य होने से परिणाम, सन्देह, रूपक, भ्रान्तिमान्, उल्लेख, स्मरण, अपह्नव, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना, श्लेष और सहोक्ति अलङ्कारों में साम्य होता है।
प्रकारान्तर से साम्य- अध्यवसाय-मूलक होने से अतिशय और उत्प्रेक्षा में साम्य है। विरोध-मूलक होने से विषम, विशेषोक्ति, विभावना, चित्र, असङ्गति, अन्योन्य, व्याघात, तद्रुण, भाविक और विशेष इन अलङ्कारों में साम्य है। वाक्य न्यायमूलक होने से परिसंख्या, अर्थापत्ति, विकल्प, यथासंख्य और समुच्चय में साम्य है। लोकव्यवहार-मूलक होने से उदात्त, विनोक्ति, स्वभावोक्ति, सम, समाधि, पर्याय, परिवृत्ति, प्नत्यनीक और तद्गुण अलङ्कारों में साम्य है। तर्कन्याय-मूलक होने से अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग और अनुमान में साम्य है। शृङ्खला की विचित्रता के कारण दीपक, सार, कारणमाला और एकावली अलङ्कारों में समानता है। अपह्नव-मूलक होने से मीलन, वक्रोक्ति और व्याजोक्ति अलङ्कारों में सादृश्य होता है। विशेषणों की विचित्रता के कारण परिकर तथा समासोक्ति में समानता होती है।
अलङ्कारों में वैषम्य- परिणाम और रूपक में आरोप होता है, इस दृष्टि से दोनों में साम्य है, किन्तु परिणाम में आरोप्य (उपमान) का प्रकृत में उपयोग होता है और रूपक में आरोप्य का प्रकृत में प्रयोग नहीं होता- “परिणाम रूपकयोरारोपगर्भत्वेऽपि, आरोप्यरूप प्रकृतेपयोगानुपयोगाम्यां भेदः।' पृष्ठ ५३।
'मुखं चन्द्र इत्यादौ मुखमारोपस्य विषय आरोप्यश्चन्द्रः। उपरञ्जकमित्येतेन परिणामालङ्कारनिरासः। तत्र प्रकृतोपयोगित्वेनारोप्यमाणस्यान्वयो न प्रकृतोरञ्जक तया।' पृष्ठ ६४।
'आरोपविषयत्वेनारोप्यं यत्रोपयोगि च। प्रकृते परिणामोऽसौ... .................।।' पृष्ठ ६७
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