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३८ योजन के विस्तार में वर्तलाकार समवसरण का निर्माण करता है। ३५ इसके मध्य गन्ध कुटी में एक सिंहासन पर भगवान् चन्द्रप्रभ विराजमान हुए और चारों ओर वर्तुलाकार बारह प्रकोष्ठों में क्रमश: गणधर आदि।
दिव्य देशना- इसके अनन्तर गणधर (मुख्य शिष्य) के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् चन्द्रप्रभ ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों के स्वरूप का विस्तृत निरूपण ऐसी भाषा में किया, जिसे सभी श्रोता आसानी से समझते रहे।
गणधरादिकों की संख्या- दस सहज, दस केवल ज्ञान कृत और चौदह देवरचित अतिशयों तथा आठ प्रातिहार्यों से विभूषित भगवान् चन्द्रप्रभ के समवसरण में तिरानवे गणधर, दो हजार ६ कुशाग्रबुद्धि पूर्वधारी, दो लाख चौरासी३७ उपाध्याय, आठ हजार३८ अवधिज्ञानी, दस हजार३९ केवली, चौदह हजार४० वैक्रिय ऋद्धिधारी साधु, आठ हजार मन:पर्ययज्ञानी साधु, सात हजार १ छ: सौ वादी, एक लाख अस्सी हजार २ आर्यिकाएँ, तीन लाख सम्यग्दृष्टि श्रावक और पाँच लाख ३ व्रतवती श्राविकाएँ रहीं।
यत्र-तत्र आर्यक्षेत्र में धर्मामृत की वर्षा करते हुए भगवान् चन्द्रप्रभ सम्मेदाचल (शिखर जी) के शिखर पर पहुँचते हैं। भाद्रपद शुक्ला सप्तमी के दिन अवशिष्ट चार अघातिया कर्मों को नष्ट करके दस लाख पूर्व प्रमाण आयु के समाप्त होते ही वे मोक्ष प्राप्त करते हैं।
चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का आधार
'चन्द्रप्रभचरितम्' की कथावस्तु के आधार के विषय में इसके रचयिता ने स्वयं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ (१,६) में जहाँ आचार्य समन्तभद्र का स्मरण किया है, वहाँ किसी एक भी पुराणकार का नहीं। हाँ, इसके प्रथम सर्ग (१, ९-१०) में गुरुपरम्परा से प्राप्त दुष्प्रवेश पुराणसागर में स्वयं प्रवेशार्थ उद्यत होने की चर्चा वीरनन्दी ने अवश्य की है। यह इस बात को ध्वनित करती है कि प्रस्तुत कृति
की सामग्री के संकलन के लिये वीरनन्दी ने अनेक विशालकाय पुराणों का परिशीलन किया था। ____ अब देखना यह है कि वे विशालकाय पुराण कौन से हैं, जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में वीरनन्दी के सामने रहे। सम्प्रति जो पुराण उपलब्ध हैं, उनमें तीन विशालकाय हैं- पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और महापुराण। चन्द्रप्रभचरित के. परिशीलन से ज्ञात होता है कि वीरनन्दी के समक्ष इन तीनों के अतिरिक्त अन्य पुराण भी रहे, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुए।
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