SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२७ हैं। कभी-कभी चाबुक उसकी आंखों पर भी मारते हैं, इसके कारण उनकी आंखें खराब हो जाती हैं। कुछ की पीठ में घाव हो जाते हैं, पर दुष्ट उन्हीं घावों पर चाबुक मारते हैं। दुर्घटनावश कभी किसी घोड़े की टांग तक टूट जाती है। जोतने वाले उसे वहीं छोड़ कर चलते बनते हैं। उसकी दवा नहीं करते और न उसे खाने-पीने को ही देते हैं। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र के कण्टकशोधनप्रकरण में लिखा है कि "....हाथी, घोड़े और रथ को मारने-तोड़ने या चुराने वालों को शूली पर चढ़ा देना चाहिए।' घोड़े की तरह बैल, खच्चर और गदहों की भी बड़ी दयनीय दशा है। हाथियों का भी एक युग रहा। हाथी का दर्शन शुभ समझा जाता रहा। चाणक्य ने अपने धर्मशास्त्र में हाथी और घोड़ों की आरती उतारने का उल्लेख किया है। हाथी का शिकार नहीं किया जाता रहा। पर अब यह आवाज आ रही है कि जंगलों में हाथी बढ़ रहे हैं, उन्हें मार डालना चाहिए। इसी तरह और भी अनेक पालतू पशु हैं, जिनसे मनुष्य खूब काम लेता है और बदले में उन्हें खूब ही सताता है। जो पशु जंगलों में रहते हैं और मनुष्य को कोई हानि नहीं पहुँचाते, उन्हें भी मनुष्य मार कर खा जाते हैं। प्राचीन तपोवनों का वर्णन पढ़ने से ज्ञात होता है कि साधु लोगे जंगली पशुओं के साथ अपने कुटम्बी के समान व्यवहार करते थे। अभिज्ञान शाकुन्तल और रघुवंश आदि में कालिदास ने तथा उनके परवर्ती अन्य कवियों ने भी अपने-अपने काव्यों में इसका सुन्दर वर्णन किया है। विश्व के समस्त प्राणी एक दूसरे के उपकारी हैं। मनुष्य को न केवल मनुष्य ही, वरन् पशु और पक्षी भी सुख देते हैं। अत: मनुष्य का भी कर्तव्य है कि उनके प्रति कृतज्ञ रहे और उनके साथ बुरा व्यवहार न करे। अहिंसा सब धर्मों का सार है। अत: पशुओं की दुर्दशा देखकर मनुष्य को कुछ तो सोचना चाहिए। जो लोग अहिंसा का उद्घोष करते हैं और कहते हैं कि दया से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं, तब वे छोटे प्राणी (जानवर) का मांस कैसे खा सकते हैं? अहिंसक एवं दयालु बनने के लिए मांस-मछली और मदिरा का त्याग तो बहुत छोटी सी शर्त व पहचान है। अहिंसा से सत्य की सिद्धि, चिद् का साक्षात्कार और आनन्द की प्राप्ति होती है। यही मानवता का सच्चिदानन्द रूप में पूर्ण विकास है। सन्दर्भ : १. तस्य खलु संसारसुखं यस्य कृषिर्धेनवः शाकवाट: सद्मन्युदपानश्च। नीतिवाक्यामृत ८/३, वार्ता समुद्देश, पृष्ठ ९३. गवाद्यैर्नष्ठिको वृत्तिं त्यजेद् बन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात् तं योजयेद् वा न निर्दयम् ।। सागारधर्मामृत ४/१६, पृष्ठ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy