SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३ नहीं हो रहा है। अब शीघ्र ही पुत्र होगा। अभी तक पुत्र न होने का कारण आपकी पत्नी का पिछले जन्म का अशुभ निदान है।' घर जाकर वह अपनी पत्नी के पत्र होने की उक्त बात को सुनाता है। वह प्रसन्न हो जाती है। दोनों धार्मिक कार्यों में संलग्न रहने लगते हैं। इतने में ही आष्टाह्निक पर्व आ जाता है। दोनों ने आठ-आठ उपवास किये, आष्टाह्रिक पूजा की और अभिषेक भी। कुछ ही दिनों के बाद रानी गर्भ धारण करती है। धीरे-धीरे गर्भ के चिह्न प्रकट होने लगे। नौ मास बीतने पर पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। उसका नाम श्रीवर्मा रखा गया। वयस्क होने पर राजा उसका विवाह करके युवराज बना देता है। उल्कापात देखकर राजा को वैराग्य हो जाता है। फलतः वह श्रीवर्मा को अपना राज्य सौंपकर श्रीप्रभ मुनि से जिनदीक्षा लेकर घोर तप करता है और फिर मुक्ति कन्या का वरण करता है। पिता के वियोग से यह कुछ दिनों तक शोकमग्न रहता है। शोक के कम होने पर वह दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। उसमें वह पूर्ण सफल होकर घर लौटता है। शरत्कालीन मेघ को शीघ्र ही विलीन होते देखकर उसे वैराग्य हो जाता है। फलत: वह अपने पुत्र श्रीकान्त को अपना उत्तराधिकार देकर श्रीप्रभ मुनि के निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करता है और घोर तपश्चरण करने लगता है। २. श्रीधरदेव- घोर तपश्चरण के प्रभाव से श्रीवर्मा पहले स्वर्ग में श्रीधरदेव होता है। वहाँ उसे दो सागरोपम आयु प्राप्त होती है। उसका अभ्युदय अन्य देवों से कहीं अच्छा है। देवियों की दृष्टि उसे स्थायी उत्सव समझती है। ३. सम्राट अजितसेन-घातकी खण्ड द्वीप के अलका नामक देश में कोशला नगरी है। वहाँ राजा अजितंजय और रानी अजितसेना' निवास करते हैं। श्रीधरदेव इन्हीं का पुत्र-अजितसेन होता है, जो वयस्क होते ही युवराटीका ज. बना दिया जाता है। अजितंजय के देखते-देखते उसके सभाभवन से अजितसेन को कुख्यात चण्डरुचि नामक असुर पिछले जन्म के वैर के कारण उठा ले जाता है। राजा व्याकुल होकर मूर्च्छित हो जाता है। इसी बीच तपोभूषण मुनि पधारते हैं और यह कहकर वापिस चले जाते हैं कि युवराज कुछ दिनों के बाद सकुशल घर आ जायगा। ११ उधर वह असुर उसे बहुत ऊँचाई से एक तालाब में गिरा देता है। मगरमच्छों से जूझता हुआ वह किसी तरह किनारे पर पहुँच जाता है। वहाँ से वह ज्यों ही परुषा नामकी अटवी में प्रवेश करता है त्यों ही एक भयङ्कर आदमी से द्वन्द्व छिड़ जाता है। पराजित होने पर वह अपने असली रूप को प्रकट कर कहता है- 'युवराज, मैं मनुष्य नहीं देव हूँ। मेरा नाम हिरण्य है। मैं आपका मित्र हूँ, पर आपके पौरुष के परीक्षण के लिए मैंने ऐसा व्यवहार किया है, क्षमा कीजिए। पिछले तीसरे भव में आप सुगन्धि देश के नरेश थे। आपकी राजधानी में एक दिन शशी ने सेंध लगाकर सूर्य के सारे धन को चुरा लिया था। पता लगने पर आपने शशी को कड़ा दण्ड दिया, जिससे वह मर गया और चह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy