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________________ १२० गोलापूर्वान्वये साहु टुड़ा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या माहिणी सुत सतु प्रणमन्ति निलां. चरणारविन्दं पुण्यप्रतिष्ठाम्।" इस मूर्ति-लेख में ओरछा, टीकमगढ़ और पपौरा- इन तीनों का उल्लेख नहीं है। संभवत: ये मदनवर्मा वही हैं जिनकी राजधानी मदनेशपुर (आधुनिक नाम अहारजी) में थी। संभव है पपौरा इन्हीं के राज्य में रहा हो। पपौरा और अहारजी में लगभग बारह मील का फासला है। अथवा यह भी हो सकता है कि किसी सङ्कट के समय यह मूर्ति उन (मदनवर्मा) के राज्य के किसी अन्य स्थान से यहाँ लाई गई हो। जो भी हो, इस विषय में अनुसन्धान की आवश्यकता है। उक्त मन्दिर संख्या २३ के बाद संवत् १५२४, १५४२, १५४५, १६८७, १७१६, १७१८, और १७७९ में क्रमश: निर्मित मन्दिर संख्या ३५, ७, ३४, २१, २२, १३ और २७ के मूर्ति-लेखों में भी ओरछा, टीकमगढ़ या पपौरा का उल्लेख नहीं है। हाँ, मन्दिर संख्या २७ में राजा उद्येतसिंह का नाम है, पर टीकमगढ़, ओरछा या पपौरा का नाम नहीं है। इसके पश्चात् संवत् १८६५ में बने मन्दिर संख्या ३९ में राजा विक्रमाजीत और ओरछा का उल्लेख है पर टीकमगढ़ का नहीं है, इसके स्थान में मामौन लिखा है। संवत् १८७२ में बने मन्दिर संख्या १८ में टीकमगढ़ के स्थान में टेहरी का उल्लेख है। इसी तरह संवत् १८७५ तथा १८७६ के प्रस्तरलेखों में भी टेहरी का उल्लेख है। संवत् १८८२ में बने मन्दिर संख्या ४ में सबसे पहले टीकमगढ़ का नाम उत्कीर्ण हुआ जो बाद के सभी मन्दिरों में पाया जाता है। टीकमगढ़ का पुराना नाम टेहरी है, यह निश्चित है, पर इसका 'मामौन' नाम भी रहा, इस विषय में में खोज की आवश्यकता है। यहाँ के ८१ मन्दिरों में से विक्रम की १३वीं शती में १, १६वीं में ३, १७वीं में १, १८वीं में ३, १९वीं में २८, २०वीं में ३७ तथा २१वीं के प्रारम्भ में ४ मन्दिर बने। इनके अतिरिक्त ४ मन्दिर और हैं जिनके समय की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। मन्दिरों का निर्माण सं. १२०२ से प्रारम्भ हुआ जो वर्तमान समय तक चलता रहा। यहाँ के मूर्ति-लेखों में पपौरा के साथ केवल क्षेत्र शब्द ही उत्कीर्ण मिलता है पर कुछ आश्चर्यजनक घटनाओं के घटने से यह अतिशय क्षेत्र कहा जाने लगा है। जिस समय घटनाएँ घटित होती हैं उस समय उन्हें प्रत्यक्ष देखने वाले अतिशय कहते हैं, पर कुछ काल बाद उन्हीं घटनाओं को केवल सुन सकने वाले लोग अन्यथा समझने लगते हैं। जो कुछ भी हो, यहाँ की कुछ घटनाएँ निम्नलिखित हैं--- यहाँ एक कुआँ है जो ‘पतराखन' के नाम से प्रख्यात है। इसके बारे में सुना जाता है-एक वृद्ध महिला ने यहाँ प्रतिष्ठा करवाई थी। इसी निमित्त से उसने हजारों . यात्रियों को भोजन के लिए आमन्त्रित किया था। संयोग की बात है उस समय भोजन तो कम नहीं हुआ, पर पानी कम पड़ गया-कुआँ खाली हो गया। इस अवसर पर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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